Monday, 14 November 2016

चाँद का झिंगोला - रामधारी सिंह "दिनकर"




ऑडियो यहाँ सुनें  Chaand Ka Jhingola by Ramdhari Singh Dinkar - Audio



हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला,
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन-सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ
ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।

आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का
न हो अगर तो ला दो मुझको कुर्ता ही भाड़े का
बच्चे की सुन बात, कहा माता ने 'अरे सलोने`
कुशल करे भगवान, लगे मत तुझको जादू टोने।

जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।

घटता-बढ़ता रोज, किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है
अब तू ही यह बता, नाप तेरा किस रोज लिवायें
सी दे एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आये!

~ रामधारी सिंह "दिनकर"



Wednesday, 9 November 2016

परिचित ~ डा. रामनिवास मानव

यहाँ सुनें ➤ Parichit -Audio version

परिचित


बस में छूट जाने के कारण, पुलिस ने उसका सामान, अपने कब्ज़े में ले लिया था। अब, किसी परिचित आदमी की ज़मानत के बाद ही, वह सामान उसे मिल सकता था।

“मेरी पत्नी सख़्त बीमार है। मेरा जल्दी घर पहुंचना बहुत ज़रूरी है होल्दार सा’ब !” उसने विनती की।

“भई, कह तो दिया, किसी जानकार आदमी को ढूंढकर ले आओ और ले जाओ अपना सामान।”

“मैं तो परदेसी आदमी हूं। सा’ब, दो सौ मील दूर के शहर में कौन मिलेगा मुझे जानने वाला !”

“यह हम नहीं जानते। देखो, यह तो कानूनी ख़ाना-पूर्ति है। बिना ख़ाना-पूर्ति किये हम सामान तुम्हें कैसे दे सकते हैं ?”

वह समझ नहीं पा रहा था कि ख़ाना-पूर्ति कैसे हो ।

कुछ सोचकर, उसने दस रुपये का नोट निकाला और चुपके-से, कॉन्स्टेबुल की ओर बढा दिया। नोट को जेब में खिसकाकर, उसे हल्की-सी डांट पिलाते हुए, कॉन्स्टेबुल ने कहा- “तुम शरीफ़ आदमी दिखते हो, इसलिए सामान ले जाने देता हूं। पर फिर ऐसी ग़लती मत करना, समझे !”
दस के नोट ने, कॉन्स्टेबुल को ही, परिचित बना दिया था।

डा. रामनिवास मानव  




साभार : भारत-दर्शन -ऑनलाइन हिंदी साहित्यिक पत्रिका

बंद दरवाज़ा ~ मुंशी प्रेमचंद

यहां सुनें ➤ Band Darwaza - Audio

बंद दरवाज़ा 

सूरज क्षितिज की गोद से निकला, बच्चा पालने से। वही स्निग्धता, वही लाली, वही खुमार, वही रोशनी।

मैं बरामदे में बैठा था। बच्चे ने दरवाजे से झांका। मैंने मुस्कुराकर पुकारा। वह मेरी गोद में आकर बैठ गया।

उसकी शरारतें शुरू हो गईं। कभी कलम पर हाथ बढ़ाया, कभी कागज पर। मैंने गोद से उतार दिया। वह मेज का पाया पकड़े खड़ा रहा। घर में न गया। दरवाजा खुला हुआ था।

एक चिड़िया फुदकती हुई आई और सामने के सहन में बैठ गई। बच्चे के लिए मनोरंजन का यह नया सामान था। वह उसकी तरफ लपका। चिड़िया जरा भी न डरी। बच्चे ने समझा अब यह परदार खिलौना हाथ आ गया। बैठकर दोनों हाथों से चिड़िया को बुलाने लगा। चिड़िया उड़ गई, निराश बच्चा रोने लगा। मगर अंदर के दरवाजे की तरफ ताका भी नहीं। दरवाजा खुला हुआ था।

गरम हलवे की मीठी पुकार आई। बच्चे का चेहरा चाव से खिल उठा। खोंचेवाला सामने से गुजरा। बच्चे ने मेरी तरफ याचना की आँखों से देखा। ज्यों-ज्यों खोंचेवाला दूर होता गया, याचना की आँखें रोष में परिवर्तित होती गईं। यहाँ तक कि जब मोड़ आ गया और खोंचेवाला आँख से ओझल हो गया तो रोष ने पुरजोर फरियाद की सूरत अख्तियार की। मगर मैं बाजार की चीजें बच्चों को नहीं खाने देता। बच्चे की फरियाद ने मुझ पर कोई असर न किया। मैं आगे की बात सोचकर और भी तन गया। कह नहीं सकता बच्चे ने अपनी माँ की अदालत में अपील करने की जरूरत समझी या नहीं। आमतौर पर बच्चे ऐसे हालातों में माँ से अपील करते हैं। शायद उसने कुछ देर के लिए अपील मुल्तवी कर दी हो। उसने दरवाजे की तरफ रुख न किया। दरवाजा खुला हुआ था।

मैंने आँसू पोंछने के ख्याल से अपना फाउंटेनपेन उसके हाथ में रख दिया। बच्चे को जैसे सारे जमाने की दौलत मिल गई। उसकी सारी इंद्रियाँ इस नई समस्या को हल करने में लग गईं। एकाएक दरवाजा हवा से खुद-ब-खुद बंद हो गया। पट की आवाज बच्चे के कानों में आई। उसने दरवाजे की तरफ देखा। उसकी वह व्यस्तता तत्क्षण लुप्त हो गई। उसने फाउंटेनपेन को फेंक दिया और रोता हुआ दरवाजे की तरफ चला क्योंकि दरवाजा बंद हो गया था। 

~ मुंशी प्रेमचंद 






साभार : भारत-दर्शन -ऑनलाइन हिंदी साहित्यिक पत्रिका

धरती का पहला प्रेमी


यहाँ सुनें ➤  Dharti ka Pahla Premi - Audio


धरती का पहला प्रेमी 


एडिथ सिटवेल ने
सूरज को धरती का

पहला प्रेमी कहा है


धरती को सूरज के बाद

और शायद पहले भी
तमाम चीज़ों ने चाहा



जाने कितनी चीज़ों ने

उसके प्रति अपनी चाहत को
अलग-अलग तरह से निबाहा



कुछ तो उस पर

वातावरण बनकर छा गए
कुछ उसके भीतर समा गए
कुछ आ गए उसके अंक में



मगर एडिथ ने

उनका नाम नहीं लिया
ठीक किया मेरी भी समझ में



प्रेम दिया उसे तमाम चीज़ों ने

मगर प्रेम किया सबसे पहले
उसे सूरज ने



प्रेमी के मन में

प्रेमिका से अलग एक लगन होती है
एक बेचैनी होती है
एक अगन होती है
सूरज जैसी लगन और अगन
धरती के प्रति
और किसी में नहीं है



चाहते हैं सब धरती को

अलग-अलग भाव से
उसकी मर्ज़ी को निबाहते हैं
खासे घने चाव से



मगरप्रेमी में

एक ख़ुदगर्ज़ी भी तो होती है
देखता हूँ वह सूरज में है



रोज़ चला आता है

पहाड़ पार कर के
उसके द्वारे
और रुका रहता है
दस-दस बारह-बारह घंटों



मगर वह लौटा देती है उसे

शाम तक शायद लाज के मारे


और चला जाता है सूरज

चुपचाप
टाँक कर उसकी चूनरी में
अनगिनत तारे
इतनी सारी उपेक्षा के
बावजूद।

~ भवानी प्रसाद मिश्र 


Tuesday, 8 November 2016

आख़री हिचकी ~ फ़ुर्सतनामा




सबके नोटों को भजाना चाहते हैं, 
हज़ार-पाँच सौ को हटाना चाहते हैं। 

यूँ अचानक बैन नोटों पर लगाकर,
ब्लैक को वाइट बनाना चाहते हैं।

छा रहा है पूँजीपतियों पर अँधेरा,
कैसे भी, काला धन बचाना चाहते हैं।

आख़री हिचकी जाली नोटों की आयी - 
मौत भी उनकी शायराना चाहते हैं। 


~ फ़ुर्सतनामा 


©Fursatnama 
 
***एनी रिसेम्ब्लेंस टू क़तील शिफ़ाई'स ग़ज़ल इज़ प्योरली इन्टेंशनल। 

Monday, 31 October 2016

रंगोली ~ फ़ुर्सतनामा




अपने आँगन में सजाना चाहती हूँ,
आ तुझे मैं ख़ुद बनाना चाहती हूँ। 

रंग सारे तेरे दामन पर गिरा कर,
बूँद से सागर बनाना चाहती हूँ। 

थक गयी मैं भरते भरते रंग तुझमें, 
तेरे रंगों में अब रंग जाना चाहती हूँ।  

छा गया है दूर क्षितिज पर अँधेरा,
रौशनी कर, वह भगाना चाहती हूँ।  

आज सारे दीप तुझमें झिलमिलायें,
दिवाली, मैं यूँ मनाना चाहती हूँ। 

~ फ़ुर्सतनामा 



Rangoli



Apane aangan meiN sajaana chaahtii hooN
Aa tujhe maiN khud banana chaahtii hooN

Rang saare tere daaman par giraa kar
Boond se saagar banana chaahtii hooN

Thak gayii maiN bharte bharte rang tujhmeiN
Tere rangoN meiN ab rang jaana chaahtii hooN

Chha gaya hai door kshitij par andhera
Raushni kar wah bhagaana chaahtii hooN 

Aaj saare deep tujhmeiN jhilmilaaye
Diwali, maiN yuuN manana chaahtii hooN!

~Fursatnama 


©Fursatnama

Friday, 28 October 2016

चयन आपका है ~ फ़ुर्सतनामा


फ़ुर्सतनामा के सभी मित्रों को दीपावली की शुभ कामनायें! स्वस्थ रहें, सकुशल रहें, सानन्द रहें !


©Fursatnama

दिए जलाइये, दिल नहीं ~ फ़ुर्सतनामा

 
 

 
 इस दिवाली दिए जलाइये, दिल नहीं,
इंसान हैं, बेरहम क़ातिल नहीं। 
 
 
रौशन चराग़-ए-ज़िन्दगी करिये,
काम इतना यूँ भी ये मुश्किल नहीं। 
 
 
चादर जो आपकी है, मापते  चलिए,
फैलाइये ना पाँव, ग़र हासिल नहीं। 
 
 
 अपनी हैसियत से घर सजाइये अपना,
घर है, ग़ैर की महफ़िल नहीं।   
 
  
अच्छे न लगें तो मत फोड़िये पटाखे,
अक्लमंद कहलायेंगे,बुज़दिल नहीं। 
 
 
त्यौहार सारे बस चराग़-ए-राह हैं,
ज़िंदगी की आख़िरी मंज़िल नहीं।
 
~ फ़ुर्सतनामा 
 
 
©Fursatnama  

Sunday, 9 October 2016

The Making of "Tomato Ketchup by Parveen Shakir" / टोमैटो कैचप ~ परवीन शाकिर


Tomato Ketchup is a moving poem, written by Parveen Shakir who is widely considered to be the greatest Urdu female poet. 

Shakir's best known works highlight fresh and uninhibited confessions of love, vulnerability and sexual tension. However, her later poetry challenged several constructs - of women poets’ persona and treatment, of working women’s little private hells in her country and difficult political and social subjects [1]. 

Tomato Ketchup is cynical in parts and loudly political as well. In effect, it brings out the ugliness of the literary scene when it comes to the objectification of female poets [2]. According to  journalist, writer, and public policy practitioner Raza Rumi, the poem Tomato Ketchup is written most probably in the memory of Sara Shagufta (the modernist Pakistani poet who committed suicide in the footsteps of Sylvia Plath) [3].

Sara Shagufta was born in Gujranwala, in 1955. She wrote poetry only fleetingly as a teenager, going through the motions of schooling and willingly being prepared by her parents to one day become a good housewife. When she first got married in 1972 at the age of 17 she tried her best to become the ‘good wife.’ But her insightful personality and intelligence somehow offended her husband. The marriage didn’t last and she moved on to marry a second time, this time on her own accord. But when the couple’s child died at birth, the husband (albeit silently) blamed Sara. 
The emotional volcano in her had been simmering for far too long. She stormed out of the marriage and began to use the lava that poured out as ink with which she began to write some of the most controversial and intense poetry.
She rapidly fell in and out of love, marrying twice more but storming out of these marriages as well. Though her poems were mostly about misunderstood women and a longing to be loved and understood despite her turbulent emotional state and individualism. Shagufta’s fourth marriage too crumbled, she finally ran out of the emotional and intellectual corners that she had constructed for herself to retreat back into. Then on the night of March 1984, she committed suicide by swallowing poison. She was only 29.
Parveen Shakir wrote this special poem, ‘Tomato Ketchup," supposedly on the trials and tribulations of Sara Shagufta. Shakir too died young in a car crash [4].

Sharing the audio version of this poem and the poem in Hindi and it's english translation:


टोमैटो कैचप ~ परवीन शाकिर 

हमारे यहाँ
शे'र कहने वाली औरत का शुमार
अजायबात  में होता है
हर मर्द ख़ुद को उसका मुख़ातिब समझता है
और चूँकि हक़ीक़त में ऐसा नहीं होता
इसलिए उसका दुश्मन हो जाता है !

सारा ने इन मानों में
दुश्मन कम बनाये,
इसलिए की वो वज़ाहतें देने में
यक़ीन नहीं रखती थी।
वो अदीब की जोरू बनने से क़ब्ल ही
सब की भाभी बन चुकी थी।


एक से एक गये गुज़रे
लिखने वालों का दावा था
की वो उसके साथ सो चुकी है।

सुब्ह से शाम तक
शह्र भर के बेरोज़गार अदीब
उस पर भिनभिनाते रहते।

जो काम काज से लगे हुए थे वो भी
सड़ी बुसी फ़ाइलों
और बोसीदा बीवियों से ऊब कर
इधर ही आते
(बिजली के बिल , बच्चे की फ़ीस
और बीवी की दवा से
बेनियाज़ हो कर,
इसलिए की ये मसाइल
छोटे लोगों के सोचने के हैं)

सारा दिन सारी शाम
और रात के कुछ हिस्से तक
अदब और फ़लसफ़े पर
धुआँधार गुफ़्तगू होती।

भूख लगती तो चन्दा-वन्दा करके
नुक्कड़ के होटल से रोटी छोले आ जाते।
अज़ीम दानिश्वर
उससे चाय की
फ़रमाइश करते हुए कहते
तुम पाकिस्तान की अमृता प्रीतम हो,
बेवक़ूफ़ लड़की
सच समझ लेती।

शायद इसलिए भी
कि उसके नानो-नफ़्क़ा के
ज़िम्मेदार तो उसे हमेशा
"काफ़्का" की कॉफ़ी पिलाते
और "नरोदा" के बिस्किट खिलाते।


इस रॉल में लिथड़े हुए कॉम्प्लिमेंट
के बहाने
उसे रोटी तो मिलती रही,
लेकिन कब तक।

एक न एक दिन तो
उसे भेड़ियों के चंगुल से
निकलना ही था।

सारा ने जंगल ही छोड़ दिया !

जब तक वो ज़िंदा रही
अदब के रसिया उसे भम्भोरते रहे,
उनकी महफ़िलों में उसका नाम
अब भी लज़ीज़ समझा जाता है,
बस ये की अब वो
उस पर दाँत नहीं गाड़ सकते।

मारने के बाद उन्होंने उसे
टोमैटो कैचप का दर्जा दे दिया है !

~ परवीन शाकिर



Translation of "Tomato Ketchup" by Parveen Shakir 


In our country,
A woman who writes poetry,
Is eyed as an odd fish.

Every man presumes
That in her poems
He is the issue addressed!
And since it is not so,
He becomes her foe.

In this sense,
Sara didn´t make many enemies.
She didn´t believe in giving explanations.
Before she could become the wife of a poor writer,
She had already become
The sister-in-law of the whole town.

Even the lowliest of them
Claimed to have slept with her!
All day long,
Jobless intellectuals of the city
Buzzed around her.
Even those who had jobs,
Would leave their stinking files and worn out wives
To come to her,
Leaving behind the electricity bill,
And the children´s school fees and wife´s medicine.
(For these are the concerns
Of lesser mortals).

Morning through late night,
Heated discussions would take place
On literature, philosophy and current affairs.
When hunger knocked in at their empty stomachs,
Bread and boiled pulse
Would be bought collectively.

Great thinkers,
Would then demand tea
Declaring her the Amrita Preetam of Pakistan.
Sara, the gullible,
Would be very pleased with herself.
Perhaps, there were some reasons for it.
Those who were responsible for supporting her,
Always fed her on "Kafka" coffee
And "Neruda" biscuits.

Because of saliva-soaked compliments,
At least, she could have one meal,
Everyday!

But for how long?
She had to free herself
From the clutches of wolves.

Sara preferred to leave the jungle itself.

As long as she lived,
The connoisseurs of Art
Kept nibbling her.
In their circle,
She is still considered delicious,
But with a difference:
They no longer can take a bite of her!
After her death,
She has been elevated
To the status of Tomato Ketchup! 

-Translated by Baidar Bakht and Leslie Lavigne[5]





Ref:

[1]. http://www.goodreads.com/book/show/18398126-after-parveen-shakir 
[2]. http://ebookkarl.com/content/find-free-after-parveen-shakir-stunning-ebook 
[3]. https://razarumi.wordpress.com/2006/09/20/on-pakistani-women-poets-and-my-friends-predicament/ 
[4]. http://www.dawn.com/news/767605/crazy-diamonds-iii 
[5]. http://deevaan.blogspot.in/2004/06/translation-of-urdu-poem-by-parveen_02.html

Saturday, 8 October 2016

डायरी खो गयी है ~ फ़ुरसतनामा




 डायरी, 
जिसमें 
अनाम  परिंदों के 
गुमनाम ठिकाने 
लिक्खे हुए हैं। 

डायरी, 
जिसमें 
हमने फूलों की 
शैतानियाँ लिक्खीं,  
पहाड़ों के गहरे राज़ 
और 
कल-कल बहते झरनों का 
शोर लिक्खा।

डायरी, 
जिस के सीने में 
दफ़्न 
समुन्दर और सूरज 
की 
दुश्मनी के क़िस्से थे। 
परिंदों और पेड़ों के, 
दर्ज़ थे 
रूहानी रिश्ते। 

हमारी तरक़्क़ी के सफ़र को  
जिसने रौशन कर रक्खा था 
वो डायरी 
 खो गयी है, 
और ज़िंदगी की उजाड़ राहें 
हमसे शिकायत कर रही हैं। 

~ फ़ुरसतनामा 






*शीन काफ निज़ाम की नज़्म से प्रेरित 


©Fursatnama