Saturday 30 April 2016

पद्मा और लिली - सूर्यकांत त्रिपाठी निराला


दुःख ही जीवन की कथा रही 
क्या कहूँ आज जो नहीं कही 
                                       ~सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

छायावाद के प्रमुख स्तम्भ निराला जी ने कम ही कहानियाँ कहीं हैं वैसे तो, जिसमें "चतुरी चमार" एवं "लिली" प्रमुख हैं। उनकीख्याति विशेष रूप से कविता के कारण ही है यहाँ  प्रस्तुत है उनके कथा संग्रह "लिली" से, उनकी कृति, "पद्मा और लिली।"   

पद्मा और लिली

पद्मा के चन्द्र-मुख पर षोडश कला की शुभ्र चंद्रिका अम्लान खिल रही है। एकांत कुंज की कली-सी प्रणय के वासंती मलयस्पर्श से हिल उठती,विकास के लिए व्याकुल हो रही है। 
पद्मा की प्रतिभा की प्रशंसा सुनकर उसके पिता ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट पंडित रामेश्वरजी शुक्ल उसके उज्ज्वल भविष्य पर अनेक प्रकार की कल्पनाएँ किया करते हैं। योग्य वर के अभाव से उसका विवाह अब तक रोक रखा है। मैट्रिक परीक्षा में पद्मा का सूबे में पहला स्थान आया था। उसे वृत्ति मिली थी। पत्नी को योग्य वर न मिलने के कारण विवाह रुका हुआ है, शुक्लजी समझा देते हैं। साल-भर से कन्या को देखकर माता भविष्य-शंका से काँप उठती हैं।
पद्मा काशी विश्वविद्यालय के कला-विभाग में दूसरे साल की छात्रा है। गर्मियों की छुट्टी है, इलाहाबाद घर आई हुई है। अबके पद्मा का उभार, उसका रूप-रंग, उसकी चितवन-चलन-कौशल-वार्तालाप पहले से सभी बदल गए हैं। उसके हृदय में अपनी कल्पना से कोमल सौन्दर्य की भावना, मस्तिष्क में लोकाचार से स्वतन्त्र अपने उच्छृंखल आनुकूल्य के विचार पैदा हो गए हैं। उसे निस्संकोच चलती-फिरती, उठती-बैठती, हँसती-बोलती देखकर माता हृदय के बोलवाले तार से कुछ और ढीली तथा बेसुरी पड़ गई हैं।   
एक दिन सन्ध्या के डूबते सूर्य के सुनहले प्रकाश में, निरभ्र नील आकाश के नीचे, छत पर, दो कुर्सियाँ डलवा माता और कन्या गंगा का रजत-सौन्दर्य एकटक देख रही थी। माता पद्मा की पढाई, कॉलेज की छात्राओं की संख्या, बालिकाओं के होस्टल का प्रबन्ध आदि बातें पूछती हैं, पद्मा उत्तर देती है। हाथ में है हाल की निकली स्ट्रैंड मैगजीन की एक प्रति। तस्वीरें देखती जाती है। हवा का एक हल्का झोंका आया, खुले रेशमी बाल, सिर से साड़ी को उड़ाकर, गुदगुदाकर, चला गया।
''सिर ढक लिया करो, तुम बेहया हुई जाती हो।'' माता ने रुखाई से कहा।
 पद्मा ने सिर पर साड़ी की जरीदार किनारी चढ़ा ली, आँखें नीची कर किताब के पन्ने उलटने लगी।
''पद्मा!'' गम्भीर होकर माता ने कहा।  
 ''जी!'' चलते हुए उपन्यास की एक तस्वीर देखती हुई नम्रता से बोली।
मन से अपराध की छाप मिट गई, माता की वात्सल्य-सरिता में कुछ देर के लिए बाढ-सी आ गई, उठते उच्छ्वास से बोलीं, ''कानपुर में एक नामी वकील महेशप्रसाद त्रिपाठी हैं।''
''हूँ", एक दूसरी तस्वीर देखती हुई।
''उनका लड़का आगरा युनिवर्सिटी से एम. ए. में इस साल फर्स्ट क्लास फर्स्ट आया है।''
''हूँ", पद्मा ने सिर उठाया। आँखें प्रतिभा से चमक उठीं।
''तेरे पिताजी को मैंने भेजा था, वह परसों देखकर लौटे हैं। कहते थे, लड़का हीरे का टुकड़ा, गुलाब का फूल है। बातचीत दस हजार में पक्की हो गई है।'' 
''हूँ",  मोटर की आवाज पा पद्मा उठकर छत के नीचे देखने लगी। हर्ष से हृदय में तरंगें उठने लगीं। मुसकुराहट दबाकर आप ही में हँसती हुई चुपचाप बैठ गई।
माता ने सोचा, लड़की बड़ी हो गई है, विवाह के प्रसंग से प्रसन्न हुई है। खुलकर कहा, ''मैं बहुत पहले से तेरे पिताजी से कह रही थी, वह तेरी पढ़ाई के विचार में पड़े थे।''
 नौकर ने आकर कहा, ''राजेन बाबू मिलने आए हैं।'' पद्मा की माता ने एक कुर्सी डाल देने के लिए कहा। कुर्सी डालकर नौकर राजेन बाबू को बुलाने नीचे उतर गया। तब तक दूसरा नौकर रामेश्वरजी का भेजा हुआ पद्मा की माता के पास आया, कहा, ''जरूरी काम से कुछ देर के लिए पंडित जल्द बुलाते हैं।''

जीने से पद्मा की माता उतर रही थीं, रास्ते में राजेन्द्र से भेंट हुई। राजेन्द्र ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। पद्मा की माता ने कंधे पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और कहा- ''चलो, पद्मा छत पर है, बैठो, मैं अभी आती हूँ।''
राजेन्द्र जज का लड़का है, पद्मा से तीन साल बड़ा, पढ़ाई में भी। पद्मा अपराजिता बडी-बडी आँखों की उत्सुकता से प्रतीक्षा में थी, जब से छत से उसने देखा था।   
''आइए, राजेन बाबू, कुशल तो है?'' पद्मा ने राजेन्द्र का उठकर स्वागत किया। एक कुर्सी की तरफ बैठने के लिए हाथ से इंगित कर खड़ी रही। राजेन्द्र बैठ गया, पद्मा भी बैठ गई।
''राजेन, तुम उदास हो!'' ''तुम्हारा विवाह हो रहा है?'' राजेन्द्र ने पूछा।
पद्मा उठकर खड़ी हो गई। बढ़कर राजेन्द्र का हाथ पकडक़र बोली- ''राजेन, तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं! जो प्रतिज्ञा मैंने की है, हिमालय की तरह उस पर अटल रहूंगी।"
पद्मा अपनी कुर्सी पर बैठ गई। मेगज़ीन खोल उसी तरह पन्नों में नजर गढ़ा दी। जीने से आहट मालूम दी।
माता निगरानी की निगाह से देखती हुई आ रही थीं। प्रकृति स्तब्ध थी। मन में वैसी ही अन्वेषक-चपलता।
''क्यों बेटा, तुम इस साल बी.ए. हो गए?'' हँसकर पूछा। 
''जी हाँ।'' सिर झुकाये हुए राजेन्द्र ने उत्तर दिया।
''तुम्हारा विवाह कब तक करेंगे तुम्हारे पिताजी, जानते हो?''
''जी नहीं।''
''तुम्हारा विचार क्या है?''
''आप लोगों से आज्ञा लेकर विदा होने के लिए आया हूँ, विलायत भेज रहे हैं पिताजी।'' नम्रता से राजेन्द्र ने कहा।
''क्या बैरिस्टर होने की इच्छा है?'' पद्मा की माता ने पूछा।
''जी हाँ।''
''तुम साहब बनकर विलायत से आना और साथ एक मेम भी लाना, मैं उसकी शुद्धि कर लूँगी।'' पद्मा हँसकर बोली।
आँखे नीची किए राजेंद्र भी मुसकराने लगा।
नौकर ने एक तश्तरी पर दो प्यालों में चाय दी-दो रकाबियों पर कुछ बिस्कुट और केक। दूसरा एक मेज़ उठा लिया। राजेन्द्र और पद्मा की कुर्सी के बीच रख दी, एक धुली तौलिया ऊपर से बिछा दी। सासर पर प्याले तथा रकाबियों पर बिस्कुट और केक रखकर नौकर पानी लेने गया, दूसरा आज्ञा की प्रतीक्षा में खडा रहा।

''मैं निश्चय कर चुका हूँ, ज़बान भी दे चुका हूँ। अबके तुम्हारी शादी कर दूँगा।'' पंडित रामेश्वरजी ने कन्या से कहा।  
''लेकिन मैंने भी निश्चय कर लिया है, डिग्री प्राप्त करने से पहले विवाह न करूंगी।'' सिर झुकाकर पद्मा ने जवाब दिया।
''मैं मजिस्ट्रेट हूँ बेटी, अब तक अक्ल ही की पहचान करता रहा हूँ, शायद इससे ज्यादा सुनने की तुम्हें इच्छा न होगी।'' गर्व से रामेश्वरजी टहलने लगे।
पद्मा के हृदय के खिले गुलाब की कुल पंखड़ियां हवा के एक पुरजोर झोंके से काँप उठीं। मुक्ताओं-सी चमकती हुई दो बूँदें पलकों के पत्रों से झड़ पड़ी। यही उसका उत्तर था।   
 ''राजेन जब आया, तुम्हारी माता को बुलाकर मैंने जीने पर नौकर भेज दिया था, एकान्त में तुम्हारी बातें सुनने के लिए। - तुम हिमालय की तरह अटल हो, मैं भी वर्तमान की तरह सत्य और दृढ।'' रामेश्वरजी ने कहा- ''तुम्हें इसलिए मैंने नहीं पढ़ाया कि तुम कुल-कलंक बनो।''
''आप यह सब क्या कह रहे हैं?''
''चुप रहो। तुम्हें नहीं मालूम? तुम ब्राह्मण-कुल की कन्या हो, वह क्षत्रिय-घराने का लड़का है- ऐसा विवाह नहीं हो सकता।'' रामेश्वरजी की साँस तेज चलने लगीं, आँखें भौंहों से मिल गईं।  
''आप नहीं समझे मेरे कहने का मतलब।'' पद्मा की निगाह कुछ उठ गईं।
''मैं बातों का बनाना आज दस साल से देख रहा  हूँ। तू मुझे चराती है? वह बदमाश.......!''
''इतना बहुत है। आप अदालत के अफ़सर है! अभी-अभी आपने कहा था, अब तक अक्ल की पहचान करते रहे हैं, यह आपकी अक्ल की पहचान है! आप इतनी बड़ी बात राजेन्द्र को उसके सामने कह सकते हैं? बतलाइए, हिमालय की तरह अटल सुन लिया, तो इससे आपने क्या सोचा?''  
आग लग गई, जो बहुत दिनों से पद्मा की माता के हृदय में सुलग रही थी।
''हट जा मेरी नज़रों से बाहर, मैं समझ गया।'' रामेश्वर जी क्रोध से काँपने लगे।
''आप गलती कर रहे हैं, आप मेरा मतलब नहीं समझे, मैं भी बिना पूछे हुए बतलाकर कमज़ोर नहीं बनना चाहती।'' पद्मा जेठ की लू में झुलस रही थी, स्थल-पद्म-सा लाल चेहरा तम-तमा रहा था। आँखों की दो सीपियाँ पुरस्कार की दो मुक्ताएँ लिए सगर्व चमक रही थीं।
रामेश्वरजी भ्रम में पड ग़ये। चक्कर आ गया। पास की कुर्सी पर बैठ गए। सर हथेली से टेककर सोचने लगे। पद्मा उसी तरह खड़ी दीपक की निष्कंप शिखा-सी अपने प्रकाश में जल रही थी।
''क्या अर्थ है, मुझे बता।'' माता ने बढ़कर पूछा। 
''मतलब यह, राजेन को संदेह हुआ था, मैं विवाह कर लूँगी - यह जो पिताजी पक्का कर आए हैं, इसके लिए मैंने कहा था कि मैं हिमालय की तरह अटल हूँ, न कि यह कि मैं राजन के साथ विवाह करूँगी। हम लोग कह चुके थे कि पढ़ाई का अन्त होने पर दूसरी चिंता करेंगे।'' पद्मा उसी तरह खड़ी सीधे ताकती रही।
''तू राजेन को प्यार नहीं करती?'' आँख उठाकर रामेश्वरजी ने पूछा।
''प्यार? करती हूँ।''
''करती है?''
''हाँ, करती हूँ।''
''बस, और क्या?''
''पिता!-"
पद्मा की आबदार आँखों से आँसुओं के मोती टूटने लगे, जो उसके हृदय की कीमत थे, जिनका मूल्य समझनेवाला वहाँ कोई न था।
माता ने ठोढ़ी पर एक उँगली रख रामेश्वरजी की तरफ देखकर कहा- ''प्यार भी करती है, मानती भी नहीं, अजीब लड़की है।''
''चुप रहो।'' पद्मा की सजल आँखें भौंहों से सट गईं, ''विवाह और प्यार एक बात है? विवाह करने से होता है, प्यार आप होता है। कोई किसी को प्यार करता है, तो वह उससे विवाह भी करता है? पिताजी जज साहब को प्यार करते हैं, तो क्या इन्होंने उनसे विवाह भी कर लिया है?''
रामेश्वरजी हँस पड़े।

रामेश्वरजी ने शंका की दृष्टि से डॉक्टर से पूछा, ''क्या देखा आपने डॉक्टर साहब?''
''बुख़ार बड़े जोर का है, अभी तो कुछ कहा नहीं जा सकता। जिस्म की हालत अच्छी नहीं, पूछने से कोई जवाब भी नहीं देती। कल तक अच्छी थी, आज एकाएक इतने जोर का बुख़ार, क्या सबब है?'' डॉक्टर ने प्रश्न की दृष्टि से रामेश्वरजी की तरफ देखा।
रामेश्वरजी पत्नी की तरफ देखने लगे।
डाक्टर ने कहा- ''अच्छा, मैं एक नुस्खा लिखे देता हूँ, इससे जिस्म की हालत अच्छी रहेगी। थोडी-सी बर्फ़ मँगा लीजिएगा। आइस-बैग तो क्यों होगा आपके यहाँ? एक नौकर मेरे साथ भेज दीजिए, मैं दे दूँगा। इस वक्त एक सौ चार डिग्री बुख़ार है। बर्फ़ डालकर सिर पर रखिएगा। एक सौ एक तक आ जाय, तब जरूरत नहीं।''
डॉक्टर चले गए। रामेश्वरजी ने अपनी पत्नी से कहा- ''यह एक दूसरा फ़साद खडा हुआ। न तो कुछ कहते बनता है, न करते। मैं क़ौम की भलाई चाहता था, अब खुद ही नकटों का सिरताज हो रहा हूँ। हम लोगों में अभी तक यह बात न थी कि ब्राह्मण की लड़की का किसी क्षत्रिय लड़के से विवाह होता। हाँ, ऊँचे कुल की लड़कियाँ ब्राह्मणों के नीचे कुलों में गयी हैं। लेकिन, यह सब आखिर क़ौम ही में हुआ है।''  
''तो क्या किया जाय?'' स्फारित, स्फुरित आँखें, पत्नी ने पूछा।    
''जज साहब से ही इसकी बचत पूछूंगा। मेरी अक़्ल अब और नहीं पहु़ँचती। - अरे छीटा!'' 
''जी!'' छीटा चिलम रखकर दौडा।
''जज साहब से मेरा नाम लेकर कहना, जल्द बुलाया है।''
''और भैया बाबू को भी बुला लाऊँ?''
''नहीं-नहीं।'' रामेश्वरजी की पत्नी ने डाँट दिया।

जज साहब पुत्र के साथ बैठे हुए वार्तालाप कर रहे थे। इंग्लैंड के मार्ग, रहन-सहन, भोजन-पान, अदब-क़ायदे का बयान कर रहे थे। इसी समय छीटा बँगले पर हाजिर हुआ, और झुककर सलाम किया। जज साहब ने आँख उठाकर पूछा, ''कैसे आए छीटाराम?''
''हुजूर को सरकार ने बुलाया है, और कहा है, बहुत जल्द आने के लिए कहना।''
''क्यों?''
''बीबी रानी बीमार हैं, डाक्टर साहब आए थे, और हुजूर.....'' बाकी छीटा ने कह ही डाला था।
''और क्या?''
''हुजूर.... '' छीटा ने हाथ जोड लिये। उसकी आँखें डबडबा आईं।
जज साहब बीमारी कड़ी समझकर घबरा गए। ड्राइवर को बुलाया। छीटा चल दिया। ड्राइवर नहीं था। जज साहब ने राजेन्द्र से कहा- ''जाओ, मोटर ले आओ। चलें, देखें, क्या बात है।''

राजेन्द्र को देखकर रामेश्वरजी सूख गए। टालने की कोई बात न सूझी। कहा- ''बेटा, पद्मा को बुख़ार आ गया है, चलो, देखो, तब तक मैं जज साहब से कुछ बातें करता हूँ।''
राजेन्द्र उठ गया। पद्मा के कमरे में एक नौकर सिर पर आइस-बैग रखे खडा था। राजेन्द्र को देखकर एक कुर्सी पलंग के नजदीक रख दी। 
 ''पद्मा!''
''राजेन!''
पद्मा की आँखों से टप-टप गर्म आँसू गिरने लगे। पद्मा को एकटक प्रश्न की दृष्टि से देखते हुए राजेन्द्र ने रूमाल से उसके आँसू पोंछ दिए।
सिर पर हाथ रखा, सिर जल रहा था। पूछा -"सिर दर्द है?"
"हाँ, जैसे कोई कलेजा मसल रहा हो।" 
दुलाई के भीतर से छाती पर हाथ रखा, बड़े ज़ोर से धड़क रही थी।
पद्मा ने पलकें मूँद ली, नौकर ने फिर सिर पर आइस-बैग रख दिया।
सिरहाने थरमामीटर रखा था। झाड़कर,  राजेन्द्र ने आहिस्ते से बगल में लगा दिया। उसका हाथ बगल से सटाकर पकड़े रहा। नज़र कमरे की घड़ी तरफ थी।  निकालकर देखा, बुखार एक सौ तीन डिग्री था।
अपलक चिन्ता की दृष्टि से देखते हुए राजेन्द्र ने पूछा- ''पद्मा, तुम कल तो अच्छी थीं, आज एकाएक बुखार कैसे आ गया?''
पद्मा ने राजेन्द्र की तरफ करवट ली, कुछ न कहा।
''पद्मा, मैं अब जाता हूँ।"
ज्वर से उभरी हुई बडी-बडी आँखों ने एक बार देखा, और फिर पलकों के पर्दे में मौन हो गईं।
अब जज साहब और रामेश्वरजी भी कमरे में आ गए।
जज साहब ने पद्मा के सिर पर हाथ रखकर देखा, फिर लड़के की तरफ़ निगाह फेरकर पूछा, ''क्या तुमने बुख़ार देखा है?'' 
''जी हाँ, देखा है।''
''कितना है?''
''एक सौ तीन डिग्री।''
''मैंने रामेश्वरजी से कह दिया है, तुम आज यही रहोगे। तुम्हें यहाँ से कब जाना है? - परसों न?''
''जी।''
''कल सुबह बतलाना घर आकर, पद्मा की हालत-कैसी रहती है। और रामेश्वरजी, डॉक्टर की दवा करने की मेरे खयाल से कोई जरूरत नहीं।''
''जैसा आप कहें।'' सम्प्रदान-स्वर से रामेश्वरजी बोले।
जज साहब चलने लगे। दरवाजे तक रामेश्वरजी भी गए। राजेन्द्र वहीं रह गया। जज साहब ने पीछे फिरकर कहा- ''आप घबराइए मत, आप पर समाज का भूत सवार है।'' मन-ही-मन कहा- ''कैसा बाप और कैसी लड़की।

तीन साल बीत गए। पद्मा के जीवन में वैसा ही प्रभात, वैसा ही आलोक भरा हुआ है। वह रूप, गुण, विद्या और ऐश्वर्य की भरी नदी, वैसी ही अपनी पूर्णता से अदृश्य की ओर, वेग से बहती जा रही है। सौन्दर्य की वह ज्योति-राशि स्नेह-शिखाओं से वैसी ही अम्लान स्थिर है। अब पद्मा एम.ए. क्लास में पढ़ती है।
वह सभी कुछ है, पर वह रामेश्वरजी नहीं हैं। मृत्यु के कुछ समय पहले उन्होंने पद्मा को एक पत्र में लिखा था- ''मैंने तुम्हारी सभी इच्छाएँ पूरी की हैं, पर अभी तक मेरी एक भी इच्छा तुमने पूरी नहीं की। शायद मेरा शरीर न रहे, तुम मेरी सिर्फ एक बात मानकर चलो- राजेन्द्र या किसी अपर जाति के लड़के से विवाह न करना। बस।''
इसके बाद से पद्मा के जीवन में आश्चर्यकर परिवर्तन हो गया। जीवन की धारा ही पलट गई। एक अद्भुत स्थिरता उसमें आ गई। जिस गति के विचार ने उसके पिता को इतना दुर्बल कर दिया था, उसी जाति की बालिकाओं को अपने ढंग पर शिक्षित कर, अपने आदर्श पर लाकर, पिता की दुर्बलता से प्रतिशोध लेने का उसने निश्चय कर लिया। 
राजेन्द्र बैरिस्टर होकर विलायत से आ गया। पिता ने कहा- ''बेटा, अब अपना काम देखो।'' राजेन्द्र ने कहा- ''जरा और सोच लूँ, देश की परिस्थिति ठीक नहीं।''

'पद्मा!'' राजेन्द्र ने पद्मा को पकड़कर कहा।
पद्मा हँस दी। ''तुम यहाँ कैसे राजेन?'' पूछा।
''बैरिस्टरी में जी नहीं लगता पद्मा, बडा नीरस व्यवसाय है, बडा बेदर्द। मैंने देश की सेवा का व्रत ग्रहण कर लिया है, और तुम?''
''मैं भी लड़कियाँ पढ़ाती हूँ - तुमने विवाह तो किया होगा?''
''हाँ, किया तो है।'' हँसकर राजेन्द्र ने कहा।
पद्मा के हृदय पर जैसे बिजली टूट पडी, जैसे तुषार की प्रहत पद्मिनी क्षण-भर में स्याह पड़ गई। होश में आ, अपने को सँभालकर कृत्रिम हँसी रँगकर पूछा- ''किसके साथ किया?''
''लिली के साथ।'' उसी तरह हँसकर राजेन्द्र बोला।
''लिली के साथ!'' पद्मा स्वर में काँप गई।
''तुम्हीं ने तो कहा था-विलायत जाना और मेम लाना।''
पद्मा की आँखें भर आईं।
हँसकर राजेन्द्र ने कहा- ''यही तुम अंगेजी की एम.ए. हो? लिली के मानी?''


स्रोत : भारत-दर्शन, हिंदी साहित्यिक पत्रिका

Thursday 28 April 2016

एक ग़ज़ल ट्विटर फ़ौलोवर्स के नाम : Ek Ghazal Twitter Followers Ke Naam




फ़ॉलो मुझको जो किया तुमने तो क्या पाओगे 
मेरे शे'रों  की आँधी में बिखर जाओगे...!

ट्वीट्स और रीट्वीट्स की बस्ती के तुम बाशिंदा हो,
ये तो बस तुम हो की इस हाल में भी ज़िंदा हो 
ट्वीट्स ग़र मैं लिखूं वो जिसमें पर-निंदा हो, 
मैं जो पर-निंदा करूँ तो क्या तुम भी कर पाओगे?
   
क्यूँ मेरे साथ कोई और परेशान रहे, 
मेरी टी.एल. है जो वीरान तो वीरान रहे 
ट्विटर का ये सफ़र तुम पे तो आसान रहे, 
फ़ॉलोवर मेरे  बन जाओगे तो पछताओगे! 

एक मैं क्या अभी आएंगे 'हैंडल्स' कितने, 
अभी गूँजेंगे 'ट्रोलर्स' के 'स्कैंडल्स' कितने! 
'शायर' तुमको सुनायेंगे 'तराने' कितने 
क्यूँ समझते हो मुझे झेल तुम पाओगे!

फ़ॉलो मुझको जो किया तुमने तो क्या पाओगे 
मेरे शे'रों  की आँधी में बिखर जाओगे.....!

Follow mujhko jo kiya tumne to kya paaoge,
Mere sher’oN  ki aandhii mein bikhar jaaoge...!

Tweets aur retweets ki bastii ke tum baashinda ho,
Ye toh bass tum ho ki iss haal mein bhi zinda ho!
Tweets Gar maiN likhooN wo jismeiN par.nindaa ho
MaiN jo par-ninda karooN toh kya tum bhi kar paaoge?
  
KyuuN mere saath koi aur pareshaaN rahe
Meri TL hai jo veeraaN to veeraaN rahe
Twitter ka ye safar tum pe to aasaaN rahe
Follower mere ban jaaoge to pachhtaaoge…!

Ek maiN kya abhi aayeNge “Handles” kitne
Abhi gooNjenge “Trollers” ke “scandals” kitne
“Shaayar”  tumko sunaayeNge  "taraane" kitne
KyuuN samajhte ho mujhe jhel tum paaoge…!

Follow mujhko jo kiya tumne to kya paaoge,
Mere sher’oN  ki aandhii mein bikhar jaaoge...!





©Fursatnama 


 
Disclaimer: Any remembrance of any of Shri Jagjit Singh's soulful ghazal is purely coincidental!





Wednesday 27 April 2016

Premchand ki Prem Sambandhii KahaaniyaaN

It is not impossible, but rare for sure, to find good Hindi literature in this city. The Hindi section, in the biggest of the book stores, majorly boasts of translated versions of Deepak Chopra, Shiv Khera, Stephen Covey and the likes, which are an absolute No-No in any case. Then there is the "Chicken Soup for the Soul" series which are really not able to lure the pure vegetarian me.

So it was a pleasant surprise indeed when I saw this book on the distant racks, in an obscure corner of a book store. My eyes blinked in disbelief and then gleamed with sheer joy when I spotted "Munshi Premchand" written in devnagri. The jolts of excitement rushed through my body like adrenaline. I gushed, literally, stretching out my hand to reach for this book. But the excitement soon turned into bewilderment when I saw the title of the book!

I had supposedly finished reading anything and everything Munshi Premchand had written, well almost, by the time I began my fourth standard in school, when the class was just beginning to get its first exposure to him, through his story "Eidgaah."  (More on Eidgaah later, as it still remains my favourite work of him.) 

But I had never come across anything close to what I saw written on the cover page. Must say the title was solely responsible for this "shocked-surprised-bewildered-amazed" state of mine. It read,

           "Premchand ki Prem Sambandhii KahaaniyaaN" 




Now this was certainly confusing, and in some ways misguiding! May be it was both presumptuous and premature of me but somehow I felt it was disgraceful for someone of the stature of Munshi Premchand to be "marketed" this way! An inexplainable sorrow engulfed my being.

Godaan, Nirmala, Gaban, Kafan, Shatranj ke KhilaaDii, Rangbhoomi, Karmbhoomi, Pratigya, Maansarovar....were all bought and devoured by avid readers, because they were written by Premchand. Readers of these books were people from all walks of life, who wanted to read realistic stories whose characters could be seen around them - be it the problems of the poor or the urban middle-class or the exploitation of the weak by the powerful hypocrites in the society.

A reader of Premchand was not expecting to read the most romantic fiction, a la Nora Roberts or Judith Mcnaught, when he bought his book. In fact Premchand's claim to fame was his ability to paint the stark (and primarily dark) picture of social issues, often venturing into highlighting corruption, feudalism, child widowhood, colonialism, and above all - poverty.

I was well aware and rather comforted by the thought of the oft-read-and-preached Gyaan - "Do not judge a book by its cover." So there were no apprehensions about the content at least. I would like to clarify here that i am not averse to the idea of love, or it being associated with Premchand. 

The rage of the 'angel' here was all about marketing God as Baba Bangali - "Yahan aapki sabhi prakaar ki samasyaaoN ka samaadhaan hota hai!" 






{The "What Lies Within" of the said book will be shared in my successive blogs.}

©Fursatnama


Monday 25 April 2016

लाल हवेली - गौरा पंत "शिवानी" द्वारा लिखित Laal Havelii – Rewritten in roman by me.

Prelude: I have rewritten this story by Shivani in roman so that the readers of this blog who are not aquainted with the devnagri script can also get a taste of her writing. I must say that this story is not her typical style and avid readers of Shivani, like me, have had their moments of doubt about it's authenticity, at the first glance. The Hindi used in this story is way too simple, compared to her usual writing. A poignant tale  of the inner turmoil of a woman caught between two worlds, literally.


                             लाल हवेली

ताहिरा ने पास के बर्थ पर सोए अपने पति को देखा और एक लंबी साँस खींचकर करवट बदल ली।
कंबल से ढकी रहमान अली की ऊँची तोंद गाड़ी के झकोलों से रह-रहकर काँप रही थी। अभी तीन घंटे और थे। ताहिरा ने अपनी नाजुक कलाई में बँधी हीरे की जगमगाती घड़ी को कोसा, कमबख़्त कितनी देर में घंटी बजा रही थी। रात-भर एक आँख भी नहीं लगी थी उसकी।

पास के बर्थ में उसका पति और नीचे के बर्थ में उसकी बेटी सलमा दोनों नींद में बेखबर बेहोश पड़े थे। ताहिरा घबरा कर बैठ गई। क्यों आ गई थी वह पति के कहने में, सौ बहाने बना सकती थी! जो घाव समय और विस्मृति ने पूरा कर दिया था, उसी पर उसने स्वयं ही नश्तर रख दिया, अब भुगतने के सिवा और चारा ही क्या था!

स्टेशन आ ही गया था। ताहिरा ने काला रेशमी बुर्का खींच लिया। दामी सूटकेस, नए बिस्तरबंद, एयर बैग, चांदी की सुराही उतरवाकर रहमान अली ने हाथ पकड़कर ताहिरा को ऐसे सँभलकर अंदाज़ से उतारा जैसे वह काँच की गुड़िया हो, तनिक-सा धक्का लगने पर टूटकर बिखर जाएगी। सलमा पहले ही कूदकर उतर चुकी थी।

दूर से भागते, हाँफते हाथ में काली टोपी पकड़े एक नाटे से आदमी ने लपककर रहमान अली को गले से लगाया और गोद में लेकर हवा में उठा लिया। उन दोनों की आँखों से आँसू बह रहे थे। 'तो यही मामू बित्ते हैं।' ताहिरा ने मन ही मन सोचा और थे भी बित्ते ही भर के। बिटिया को देखकर मामू ने झट गले से लगा लिया, 'बिल्कुल इस्मत है, रहमान।' वे सलमा का माथा चूम-चूमकर कहे जा रहे थे, 'वही चेहरा मोहरा, वही नैन-नक्श। इस्मत नहीं रही तो खुदा ने दूसरी इस्मत भेज दी।' 

ताहिरा पत्थर की-सी मूरत बनी चुप खड़ी थी। उसके दिल पर जो दहकते अंगारे दहक रहे थे उन्हें कौन देख सकता था? वही स्टेशन, वही कनेर का पेड़, पंद्रह साल में इस छोटे से स्टेशन को भी क्या कोई नहीं बदल सका!

'चलो बेटी।' मामू बोले, 'बाहर कार खड़ी है। जिला तो छोटा है, पर अल्ताफ की पहली पोस्टिंग यही हुई। इन्शाअल्ला अब कोई बड़ा शहर मिलेगा।'

मामू के इकलौते बेटे अल्ताफ की शादी में रहमान अली पाकिस्तान से आया था, अल्ताफ को पुलिस-कप्तान बनकर भी क्या इसी शहर में आना था। ताहिरा फिर मन-ही-मन कुढ़ी।

घर पहुँचे तो बूढ़ी नानी खुशी से पागल-सी हो गई। बार-बार रहमान अली को गले लगा कर चूमती थीं और सलमा को देखकर ताहिरा को देखना भूल गई, 'या अल्लाह, यह क्या तेरी कुदरत। इस्मत को ही फिर भेज दिया।' दोनों बहुएँ भी बोल उठीं, 'सच अम्मी जान, बिल्कुल इस्मत आपा हैं पर बहू का मुँह भी तो देखिए। लीजिए ये रही अशरफ़ी।' और झट अशरफ़ी थमा कर ननिया सास ने ताहिरा का बुर्का उतार दिया, 'अल्लाह, चाँद का टुकड़ा है, नन्हीं नजमा देखो सोने का दिया जला धरा है।'

ताहिरा ने लज्जा से सिर झुका लिया। पंद्रह साल में वह पहली बार ससुराल आई थी। बड़ी मुश्किल से वीसा मिला था, तीन दिन रहकर फिर पाकिस्तान चली जाएगी, पर कैसे कटेंगे ये तीन दिन?

'चलो बहू, उपर के कमरे में चलकर आराम करो। मैं चाय भिजवाती हूँ।' कहकर नन्हीं मामी उसे ऊपर पहुँचा आई। रहमान नीचे ही बैठकर मामू से बातों में लग गया और सलमा को तो बड़ी अम्मी ने गोद में ही खींच लिया। बार बार उसके माथे पर हाथ फेरतीं, और हिचकियाँ बँध जाती, 'मेरी इस्मत, मेरी बच्ची।'

ताहिरा ने एकांत कमरे में आकर बुर्का फेंक दिया। बन्द खिड़की को खोला तो कलेजा धक हो गया। सामने लाल हवेली खड़ी थी। चटपट खिड़की बंद कर तख्त पर गिरती-पड़ती बैठ गई, 'खुदाया - तू मुझे क्यों सता रहा हैं?' वह मुँह ढाँपकर सिसक उठी। पर क्यों दोष दे वह किसी को। वह तो जान गई थी कि हिन्दुस्तान के जिस शहर में उसे जाना है, वहाँ का एक-एक कंकड़ उस पर पहाड़-सा टूटकर बरसेगा। उसके नेक पति को क्या पता? भोला रहमान अली, जिसकी पवित्र आँखों में ताहिरा के प्रति प्रेम की गंगा छलकती, जिसने उसे पालतू हिरनी-सा बनाकर अपनी बेड़ियों से बाँध लिया था, उस रहमान अली से क्या कहती?

पाकिस्तान के बटवारे में कितने पिसे, उसी में से एक थी ताहिरा! तब थी वह सोलह वर्ष की कनक छड़ी-सी सुन्दरी सुधा! सुधा अपने मामा के साथ ममेरी बहन के ब्याह में मुल्तान आई। दंगे की ज्वाला ने उसे फूँक दिया। मुस्लिम गुंडों की भीड़ जब भूखे कुत्तों की भाँति उसे बोटी-सी चिचोड़ने को थी तब ही आ गया फरिश्ता बनकर रहमान अली। नहीं, वे नहीं छोडेंगे, हिंदुओं ने उनकी बहू-बेटियों को छोड़ दिया था क्या? पर रहमान अली की आवाज़ की मीठी डोर ने उन्हें बाँध लिया। सांवला दुबला-पतला रहमान सहसा कठोर मेघ बनकर उस पर छा गया। सुधा बच गई पर ताहिरा बनकर। 

रहमान की जवान बीवी को भी देहली में ऐसे ही पीस दिया था, वह जान बचाकर भाग आया था, बुझा और घायल दिल लेकर। सुधा ने बहुत सोचा समझा और रहमान ने भी दलीलें कीं पर पशेमान हो गया। हारकर किसी ने एक-दूसरे पर बीती बिना सुने ही मजबूरियों से समझौता कर लिया। ताहिरा उदास होती तो रहमान अली आसमान से तारे तोड़ लाता, वह हँसती तो वह कुर्बान हो जाता।

एक साल बाद बेटी पैदा हुई तो रहा-सहा मैल भी धुलकर रह गया। अब ताहिरा उसकी बेटी की माँ थी, उसकी किस्मत का बुलन्द सितारा। पहले कराची में छोटी-सी बजाजी की दुकान थी, अब वह सबसे बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर का मालिक था। दस-दस सुन्दरी एंग्लो इंडियन छोकरियाँ उसके इशारों पर नाचती, धड़ाधड़ अमरीकी नायलॉन और डेकरॉन बेचतीं। दुबला-पतला रहमान हवा-भरे रबर के खिलौने-सा फूलने लगा। तोंद बढ़ गई। गर्दन ऐंठकर शानदार अकड़ से ऊँची उठ गई, सीना तन गया, आवाज़ में खुद-ब-खुद एक अमरीकी डौल आ गया।

पर नीलम-पुखराज से जड़ी, हीरे से चमकती-दमकती ताहिरा, शीशम के हाथी दाँत जड़े छपर-खट पर अब भी बेचैन करवटें ही बदलती। मार्च की जाड़े से दामन छुड़वाती हल्की गर्मी की उमस लिए पाकिस्तानी दोपहरिया में पानी से निकली मछली-सी तड़फड़ा उठती। मस्ती-भरे होली के दिन जो अब उसकी पाकिस्तानी ज़िन्दगी में कभी नहीं आएँगे गुलाबी मलमल की वह चुनरी उसे अभी भी याद है, अम्मा ने हल्का-सा गोटा टाँक दिया था। हाथ में मोटी-सी पुस्तक लिए उसका तरुण पति कुछ पढ़ रहा था। घुँघराली लटों का गुच्छा चौड़े माथे पर झुक गया था, हाथ की अधजली सिगरेट हाथ में ही बुझ गई थी। गुलाबी चुनरी के गोटे की चमक देखते ही उसने और भी सिर झुका दिया था, चुलबुली सुन्दरी बालिका नववधू से झेंपझेंपकर रह जाता था, बेचारा। पीछे से चुपचाप आ कर सुधा ने दोनों गालों पर अबीर मल दिया था और झट चौके में घुसकर अम्मा के साथ गुझिया बनाने में जुट गई थी। वहीं से सास की नज़र बचाकर भोली चितवन से पति की ओर देख चट से छोटी-सी गुलाबी जीभ निकालकर चिढ़ा भी दिया था, उसने। जब वह मुल्तान जाने को हुई तो कितना कहा था उन्होंने, 'सुधा मुल्तान मत जाओ।' पर वह क्या जानती थी कि दुर्भाग्य का मेघ उस पर मंडरा रहा है? स्टेशन पर छोड़ने आए थे, इसी स्टेशन पर। यही कनेर का पेड़ था, यही जंगला। मामाजी के साथ गठरी-सी बनी सुधा को घूँघट उठाने का अवकाश नहीं मिला। गाड़ी चली तो साहस कर उसने घूंघट जरा-सा खिसकाकर अंतिम बार उन्हें देखा था। वही अमृत की अंतिम घूँट थी।

सुधा तो मर गई थी, अब ताहिरा थी। उसने फिर काँपते हाथों से खिड़की खोली, वही लाल हवेली थी उसके श्वसुर वकील साहब की। वही छत पर चढ़ी रात की रानी की बेल, तीसरा कमरा जहाँ उसके जीवन की कितनी रस-भरी रातें बीती थीं, न जाने क्या कर रहे होंगे, शादी कर ली होगी, क्या पता बच्चों से खेल रहें हों! आँखे फिर बरसने लगीं और एक अनजाने मोह से वह जूझ उठी।

'ताहिरा, अरे कहाँ हो?' रहमान अली का स्वर आया और हडबड़ाकर आँखे पोंछ ताहिरा बिस्तरबंद खोलने लगी। रहमान अली ने गीली आँखे देखीं तो घुटना टेक कर उसके पास बैठ गया, 'बीवी, क्या बात हो गई? सिर तो नहीं दुख रहा है। चलो-चलो, लेटो चलकर। कितनी बार समझाया है कि यह सब काम मत किया करो, पर सुनता कौन है! बैठो कुर्सी पर, मैं बिस्तर खोलता हूँ।' मखमली गद्दे पर रेशमी चादर बिछाकर रहमान अली ने ताहिरा को लिटा दिया और शरबत लेने चला गया। सलमा आकर सिर दबाने लगी, बड़ी अम्मा ने आकर कहा, 'नज़र लग गई है, और क्या।' नहीं नजमा ने दहकते अंगारों पर चून और मिर्च से नज़र उतारी। किसी ने कहा, 'दिल का दौरा पड़ गया, आंवले का मुरब्बा चटाकर देखो।'

लाड और दुलार की थपकियाँ देकर सब चले गए। पास में लेटा रहमान अली खर्राटे भरने लगा। तो दबे पैरों वह फिर खिड़की पर जा खड़ी हुई। बहुत दिन से प्यासे को जैसे ठंडे पानी की झील मिल गई थी, पानी पी-पीकर भी प्यास नहीं बुझ रही थी। तीसरी मंज़िल पर रोशनी जल रही थी। उस घर में रात का खाना देर से ही निबटता था। फिर खाने के बाद दूध पीने की भी तो उन्हें आदत थी। इतने साल गुज़र गए, फिर भी उनकी एक-एक आदत उसे दो के पहाड़े की तरह जुबानी याद थी। सुधा, सुधा कहाँ है तू? उसका हृदय उसे स्वयं धिक्कार उठा, तूने अपना गला क्यों नहीं घोंट दिया? तू मर क्यों नहीं गई, कुएँ में कूदकर? क्या पाकिस्तान के कुएँ सूख गए थे? तूने धर्म छोड़ा पर संस्कार रह गए, प्रेम की धारा मोड़ दी, पर बेड़ी नहीं कटी, हर तीज, होली, दीवाली तेरे कलेजे पर भाला भोंककर निकल जाती है। हर ईद तुझे खुशी से क्यों नहीं भर देती? आज सामने तेरे ससुराल की हवेली है, जा उनके चरणों में गिरकर अपने पाप धो ले। ताहिरा ने सिसकियाँ रोकने को दुपट्टा मुँह में दबा लिया।
रहमान अली ने करवट बदली और पलंग चरमराया। दबे पैर रखती ताहिरा फिर लेट गई। 

सुबह उठी तो शहनाइयाँ बज रही थीं, रेशमी रंग-बिरंगी गरारा-कमीज अबरखी चमकते दुपट्टे, हिना और मोतिया की गमक से पूरा घर मह-महकर रहा था। पुलिस बैंड तैयार था, खाकी वर्दियाँ और लाल तुर्रम के साफे सूरज की किरनों से चमक रहे थे। बारात में घर की सब औरतें भी जाएँगी। एक बस में रेशमी चादर तानकर पर्दा खींच दिया गया था। लड़कियाँ बड़ी-बड़ी सुर्मेदार आंखों से नशा-सा बिखेरती एक दुसरे पर गिरती-पड़ती बस पर चढ़ रही थीं। बड़ी-बुढ़ियाँ पानदान समेटकर बड़े इत्मीनान से बैठने जा रही थीं और पीछे-पीछे ताहिरा काला बुर्का ओढ़कर ऐसी गुमसुम चली जा रही थी जैसे सुध-बुध खो बैठी हो। 
ऐसी ही एक सांझ को वह भी दुल्हन बनकर इसी शहर आई थी, बस में सिमटी-सिमटाई लाल चुनर से ढ़की। आज था स्याह बुर्का, जिसने उसका चेहरा ही नहीं, पूरी पिछली जिन्दगी अंधेरे में डुबाकर रख दी थी। 

'अरे किसी ने वकील साहब के यहां बुलौआ भेजा या नहीं?' बड़ी अम्मी बोलीं ओर ताहिरा के दिल पर नश्तर फिरा।
'दे दिया अम्मी।' मामूजान बोले, 'उनकी तबीयत ठीक नहीं है, इसी से नहीं आए।'
'बड़े नेक आदमी हैं' बड़ी अम्मी ने डिबिया खोलकर पान मुंह में भरा, फिर छाली की चुटकी निकाली और बोली, 'शहर के सबसे नामी वकील के बेटे हैं पर आस न औलाद। सुना एक बीवी दंगे में मर गई तो फिर घर ही नहीं बसाया।'

बड़ी धूमधाम से ब्याह हुआ, चांद-सी दुल्हन आई। शाम को पिक्चर का प्रोग्राम बना। नया जोड़ा, बड़ी अम्मी, लड़कियाँ, यहाँ तक कि घर की नौकरानियाँ भी बन-ठनकर तैयार हो गई। पर ताहिरा नहीं गई, उसका सिर दुख रहा था। बे सिर-पैर के मुहब्बत के गाने सुनने की ताकत उसमें नहीं थी।

अकेले अंधेरे कमरे में वह चुपचाप पड़ी रहना चाहती थी - हिन्दुस्तान, प्यारे हिन्दुस्तान की आखिरी साँझ। जब सब चले गए तो तेज बत्ती जलाकर वह आदमकद आईने के सामने खड़ी हो गई। समय और भाग्य का अत्याचार भी उसका अलौकिक सौंदर्य नहीं लूट सका। वह बड़ी-बड़ी आँखें, गोरा रंग और संगमरमर-सी सफेद देह -- कौन कहेगा वह एक जवान बेटी की माँ है? कहीं पर भी उसके पुष्ट यौवन ने समय से मुँह की नहीं खाई थी। 
कल वह सुबह चार बजे चली जाएगी। जिस देवता ने उसके लिए सर्वस्व त्याग कर वैरागी का वेश धर लिया है, क्या एक बार भी उसके दर्शन नहीं मिलेंगे? किसी शैतान-नटखट बालक की भाँति उसकी आँखे चमकने लगीं।

झटपट बुर्का ओढ़, वह बाहर निकल आई, पैरों में बिजली की गति आ गई, पर हवेली के पास आकर वह पसीना-पसीना हो गई। पिछवाड़े की सीढ़ियाँ उसे याद थीं जो ठीक उनके कमरे की छोटी खिड़की के पास अकर ही रुकती थीं। एक-एक पैर दस मन का हो गया, कलेजा फट-फट कर मुंह को आ गया, पर अब वह ताहिरा नहीं थी, वह सोलह वर्ष पूर्व की चंचल बालिका नववधू सुधा थी जो सास की नज़र बचाकर तरुण पति के गालों पर अबीर मलने जा रही थी। मिलन के उन अमूल्य क्षणों में सैयद वंश के रहमान अली का अस्तित्व मिट गया था। आखिरी सीढ़ी आई, सांस रोककर, आँखे मूँद वह मनाने लगी, 'हे बिल्वेश्वर महादेव, तुम्हारे चरणों में यह हीरे की अँगूठी चढ़ाऊँगी, एक बार उन्हें दिखा दो पर वे मुझे न देखें।'

बहुत दिन बाद भक्त भगवान का स्मरण किया था, कैसे न सुनते? आँसुओं से अंधी ने देवता को देख लिया। वही गंभीर मुद्रा, वही लट्ठे का इकबर्रा पाजामा और मलमल का कुर्ता। मेज़ पर अभागिन सुधा की तस्वीर थी जो गौने पर बड़े भय्या ने खींची थी।

'जी भरकर देख पगली और भाग जा, भाग ताहिरा, भाग! ' उसके कानों में जैसे स्वयं भोलानाथ गरजे।
सुधा फिर डूब गई, ताहिरा जगी। सब सिनेमा से लौटने को होंगे। अंतिम बार आँखों ही आँखों में देवता की चरण-धूलि लेकर वह लौटी और बिल्वेश्वर महादेव के निर्जन देवालय की ओर भागी। न जाने कितनी मनौतियाँ माँगी थीं, इसी देहरी पर। सिर पटककर वह लौट गई, आँचल पसारकर उसने आखिरी मनौती माँगी, 'हे भोलेनाथ, उन्हें सुखी रखना। उनके पैरों में काँटा भी न गड़े।' हीरे की अँगूठी उतारकर चढ़ा दी और भागती-हाँफती घर पहुँची।

रहमान अली ने आते ही उसका पीला चेहरा देखा तो नब्ज़ पकड़ ली, 'देखूँ, बुखार तो नहीं है, अरे अँगूठी कहाँ गई?' वह अँगूठी रहमान ने उसे इसी साल शादी के दिन यादगार में पहनाई थी।
'न जाने कहाँ गिर गई?' थके स्वर में ताहिरा ने कहा।
'कोई बात नहीं' रहमान ने झुककर ठंडी बर्फ़-सी लंबी अँगुलियों को चूमकर कहा, 'ये अँगुलियाँ आबाद रहें। इन्शाअल्ला अब के तेहरान से चौकोर हीरा मँगवा लेंगे।'

ताहिरा की खोई दृष्टि खिड़की से बाहर अंधेरे में डूबती लाल हवेली पर थी, जिसके तीसरे कमरे की रोशनी दप-से-बुझ गई थी। ताहिरा ने एक सर्द साँस खींचकर खिड़की बन्द कर दी।

लाल हवेली अंधेरे में गले तक डूब चुकी थी।

                         Laal Havelii
Tahira ne paas ke berth par soye apne pati ko dekha aur ek lambii saaNs kheeNch kar karvaT badal lii. Kambal se dhaNkii Rahman Ali kii ooNchii toNd gaaDii ke jhakoloN se rah rah kar kaaNp rahii thi. Abhi teen ghanTe aur the, Tahira ne apnii naazuk kalaaii meiN bandhii hiire kii jagmagaatii ghaDii ko kosaa, kambaKht kitnii der meiN ghanTii bajaa rahii thii. Raat bhar ek aaNkh bhi nahiN lagii thii uskii.
Paas ke berth meiN uska pati aur neeche ke berth mein uskii beTii Salma dono neend mein beKhabar behosh paDe the. Tahira ghabraa kar baiTh gayii. KyoN aa gayii thii vah pati ke kahne meiN, sau bahaane banaa saktii thii! Jo ghaav samay aur vismritii ne poora kar diya tha, usii par usne swayam hii nashtar rakh diya, ab bhugatne ke siwaa aur chaara hi kya tha!
Station aa hii gaya tha. Tahira ne kaala reshmi burkaa kheench liya. Daamii suitcase, naye bistarband, air bag, chaandii kii suraahii utarvaa kar Rahman Ali ne haath pakaD kar Tahira ko aise sambhal kar andaaz se utaara jaise vah kaanch kii guDiyaa ho, tanik sa dhakka lagne par TooT kar bikhar jaayegii. Salma pahle hii kood kar utar chukii thi.
Door se bhaagte – haanfte, haath mein kaalii Topii pakDe ek naaTe se aadmii ne lapak kar Rahman Ali ko gale se lagaaya aur god meiN le kar hawaa meiN uThaa liya. Un donoN kii aankhoN mein aansooN bah rahe the. “To yahii Mamu Bitte hain!” Tahira ne mann hi mann socha, aur the bhii bitte bhar ke. BiTiyaa ko dekh kar Mamu ne jhaT gale se lagaa liya, “Bilkul Ismat hai, Rahman!” Vey Salma kaa maatha choom choom kar kahe ja rahe the, “Vahii chehraa mohraa, Vahii nain-naqsh! Ismat nahin rahii to Khudaa ne doosrii Ismat bhej dii.”
Tahira patthar kii sii moorat banii chup khaDii thii. Uske dil par jo dahakte angaare dahak rahe the unheiN kaun dekh saktaa tha? Vahii station, vahii kaner ka peD, pandrah saal meiN is chhoTe se station ko bhii kya koii nahiN badal saka!
“Chalo beTii,” Mamu bole, “Baahar car khaDii hai. Zila to chhoTa hai par Altaf kii pehlii posting yahiiN hui. InshaAllah ab koi baDaa shahar milega.”
Mamu ke iklaute beTe Altaf kii shaadi mein Rahman Ali Pakistan se aaya tha. Altaf ko Police-Kaptaan banker bhii kya isii shahar meiN aana tha. Tahira phir mann hi mann kuDhii.
Ghar pahunche to booDhii naanii khushii se paagal sii ho gayii. Baar-baar Rahman Ali ko gale lagaa kar choomtii thiiN aur Salma ko dekh kar Tahira ko dekhna bhool gayiiN, “Ya Allah, yah kya teri qudrat! Ismat ko hi phir bhej diya!” Dono bahu.eiN bhi bol uThiiN, “Sach Ammi jaan, bilkul Ismat Aapa hain par bahu ka muNh bhii to dekhiye! Leejiye ye rahii asharfii.”
Aur jhaT asharfii thamaa kar naniya-saas ne Tahira ka burkaa utaar diya, “Allaah, chaand ka TukDaa hai, nanhiiN Najma dekho sone ka diya jala dhara hai!”
Tahira ne lajja se sir jhukaa liya. Pandrah saal mein vah pahlii baar sasuraal aayii thii. BaDii mushqil se visa mila tha, teen din rah kar phir Pakistan chalii jaayegii, par kaise kaTenge ye teen din?
“Chalo bahu, oopar ke kamre meiN chal kar aaraam karo. MaiN chai bhijwaatii hooN,” kah kar nanhiiN maamii usse oopar pahuNcha aaii. Rahman neeche hi baiTh kar Mamu se baatoN meiN lag gaya aur Salma ko to baDii Ammi ne go’d meiN hi kheeNch liya. Baar-baar uske maathe par haath phertiiN, aur hichkiyaaN bandh jaati, “Merii Ismat, merii bachchii!”
Tahira ne ekaant kamre meiN aakar burkaa pheNk diyaa. Band khiDkii ko khola to kaleja dhak ho gaya. Saamne Laal Havelii khaDii thii. ChaT-paT khiDkii band kar taKht par girtii-paDtii baiTh gayii, “Khudaaya – tu mujhe kyoN sataa raha hai?”
Vah muNh dhaap kar sisak uThii. Par kyoN dosh de wah kisii ko. Vah to jaan gayii thii ki Hindustan ke jis shahar meiN use jaana hai, wahaaN ka ek-ek kankaD uss par pahaaD sa TooT kar barsega. Uske nek pati ko kya pata?

Bhola Rahman Ali, jiskii pavitra aankhoN meiN Tahira ke pati-prem kii gangaa chhalaktii, jisne use paaltuu hiranii sa banaa kar apnii beDiiyoN se baaNdh liyaa tha, uss Rahman Ali se kya kehtii?

Pakistan ke banTwaare meiN kitne pise, ussi meiN se ek thii Tahira! Tab thii Sudha! Sudha apne mama ke saath mamerii bahan ke byaah mein Multan aayii. Dange kii jwaala ne usse phoonk diya. Muslim gunDoN ki bheeD jab bhookhe kuttoN kii bhaanti usse boTii si chichoDne ko thii tab hi aa gayaa farishta ban kar Rahman Ali. NahiN, wey nahiN chhoDenge, hinduoN ne unkii bahuu-beTiyoN ko chhoD diya tha kya? Par Rahman Ali kii awaaz kii meeThii Dor ne unhe baandh liya. SaaNwlaa dubla-patla Rahman sahsaa kaThor megh ban kar uss par chhaa gaya. Sudha bach gayii par Tahira ban kar.
Rahman ki jawaan biiwii ko bhi Dehlii mein aise hii piis diya tha, vah jaan bachaa kar bhaag aayaa tha, bujha aur ghaayal dil le kar. Sudha ne bahut socha-samjha aur Rahman ne bhi daliileiN kiiN par pashemaan ho gayaa. Haar kar kisii ne ek doosre par beeti bina sune hi majbooriyoN se samjhautaa kar liya. Tahira udaas hotii to Rahman Ali aasmaan se taare toD laata, vah haNstii to vah qurbaan ho jaata.
Ek saal baad beTii paida huii to raha saha mail bhii dhul kar jaata rah gaya. Ab Tahira uskii beTii ki Maa thii, uskii qismat ka buland sitaara. Pahle Karachi meiN chhoTii sii bajaajii kii dukaan thii, ab vah sabse baDe departmental store ka maalik tha. Dus-dus sundarii anglo-indian chhokariyaaN uske ishaaroN par naachtii, dhaDaa-dhaD amreekii naaylon aur Dekraun bechtiiN. Dubla-patla Rahman havaa-bhare rubber ke khilaune sa phoolne laga. Tond baDh gayii. Gardan ainTh kar shaandaar akaD se oonchii uTh gayii, seena tann gaya, awaaz mein khud-ba-khud ek amreekii Daul aa gaya.

Par neelam-pukhraaj se jaDii, hiire se chamaktii damaktii Tahira, sheesham ke haaNthii-daaNt jade chhapar-khaT par ab bhii bechain karvaTeiN hii badaltii. March kii jaaDe se daaman chhuDwaatii halkii garmii kii umas liye Pakistani dopahariya meiN paanii se niklii machhlii-sii taD.phaDaa uThtii. Mastii bhare Holi ke din jo ab uskii Pakistani zindagii meiN kabhi nahiN aayenge. Gulaabii malmal ki vah chunarii usse abhii bhi yaad hai, Amma ne halka-sa goTa Taank diya tha. Haath mein moTii-sii pustak liye uskaa tarun pati kuchh paDh raha tha. Ghunghraalii laToN ka guchchha chauDe maathe par jhuk gaya tha, haath kii adh.jalii cigarette haath meiN hi bujh gayii thii. Gulaabii chunrii ke goTe kii chamak dekhte hii usne aur bhii sir jhukaa diya tha. Chulbulii sundarii baalikaa nav-vadhu se jhenp jhenp kar rah jaata tha, bechaara. Piichhe se chup-chaap aa kar Sudha ne dono gaaloN par abiir mal diya tha aur jhaT chauke meiN ghus kar Amma ke saath gujhiyaa banaane meiN juuT gayii thii. WahiiN se saas ki nazar bachaa kar bholii chitvan se pati kii ore dekh chat se chhoTii-sii gulaabii jeebh nikaal kar chiDhaa bhii diyaa thaa, usne.
Jab vah Multan jaane ko huii to kitnaa kahaa tha unhone, “Sudha Multan mat jao.” Par vah kya jaantii thii ki durbhaagya ka megh uss par manDaraa raha hai? Station par chhoDne aaye the, issi station par. Yahii kaner ka peD tha, yahii jangalaa. Mamaji ke saath gaThrii-sii banii Sudha ko ghuunghaT uThaane ka avakaash nahiN mila. GaaDii chalii toh saahas kar usne ghuunghaT zara-sa khiska kar antim baar unheiN dekha tha. Wahi amrit ki antim ghuunT thii.

Sudha to mar gayii thii, ab Tahira thii. Usne phir kaaNpte haaNthoN se khiDkii kholii, wahi laal havelii thii uske shwasur Vakeel Saahab kii. Wahii chhat par chaDhii raat kii raanii kii bel, wahii teesraa kamra jahaN uske jeevan kii kitnii ras-bharii raateiN beetiiN thiiN. Na jaane kya kar rahe honge, shaadii kar lii hogii, kya pata bachchoN se khel rahe hoN! AankheiN phir barasne lagiiN aur ek anjaane moh se vah juujh uThii.

“Tahira, arre kahaN ho?” Rahman Ali ka swar aaya aur haDbaDaa kar aankheiN poNchh Tahira bistarband kholne lagii. Rahman Ali ne geelii aaNkh dekhiiN to ghuTnaa Tek kar uske paas baiTh gaya, “Beewii, kya baat ho gayii? Sir to nahiiN dukh raha hai? Chalo-chalo leTo chal kar. Kitnii baar samjhaaya hai ki yah sab kaam mat kiyaa karo, par suntaa kaun hai! BaiTho kursii par, main bistar kholtaa hooN.” Makhmalii gadde par reshmii chaadar bichhaa kar Rahman Ali ne Tahira ko liTa diya aur sharbat lene chala gaya. Salma aa kar sir dabaane lagii, baDii Amma ne aa kar kaha, “Nazar lag gayii hai, aur kya!” NanhiiN Nazma ne dahakte angaaroN par choon aur mirch se nazar utaarii. Kisii ne kaha, “Dil ka dauraa paD gaya, aaNwle ka murabba chaTaa kar dekho!”

LaaD aur dulaar ki ThapkiyaaN de kar sab chale gaye. Paas mein leTa Rahman Ali kharraaTe bharne laga. To dabe pairoN vah phir khiDkii par ja khaDii huii. Bahut din se pyaase ko jaise ThanDe paanii kii jheel mil gayii thii, paanii pii-pii kar bhii pyaas nahin bujh rahii thii. Teesrii manzil par roshnii jal rahii thi. Uss ghar meiN raat ka khaana der se hi nibaT’taa tha. Phir khaane ke baad doodh peene kii bhii to unheiN aadat thii. Itne saal guzar gaye, phir bhii unkii ek-ek aadat usse do ke pahaaDe kii tarah zubaanii yaad thii. Sudha, Sudha kahaN hai tu? Uskaa hriday usse swayam dhikkaar uTha, tune apna gala kyoN nahiN ghoNT diya? Tuu marr kyon nahiN gayii, kue’N meiN kood kar? Kya Pakistan ke kue’N suukh gaye the? Tuune dharm chhoDaa par sanskaar rah gaye, prem kii dhaaraa moD dii, par beDii nahiN kaTii, har Teej, Holi, Diwaalii tere kaleje par bhaalaa bhoNk kar nikal jaatii hai. Har Eid tujhe khushii se kyoN nahiN bhar detii? Aaj saamne tere sasuraal kii havelii hai, ja unke charaNoN meiN gir kar apne paap dho le. Tahira ne siskiyaaN rokne ko dupaTTa muNh meiN dabaa liya.

Rahmaan Ali ne karvaT badlii aur palang charmaraaya. Dabe pair rakhtii Tahira phir leT gayii. Subah uThii to shahnaaiyaaN baj rahii thiiN. Reshmii rang-birangii garaara-qameez abraKhii chamakte dupaTTe, hina aur motiyaa ki gamak se poora ghar mah-mah kar raha tha. Police-Band taiyyar tha, KhaaKii vardiyaaN aur laal turram ke saafe suraj kii kirnoN se chamak rahe the.
Baraat meiN ghar kii sab aurateiN bhii jaayengi. Ek bus mein reshmii chaadar taan kar parda kheench diya gaya tha. LaDkiyaaN baDii baDii surmedaar aaNkhoN se nashaa-sa bikhertii ek doosre par girtii-paDtii bus par chaDh rahii thiiN. BaDii-booDhiyaaN paandaan sameT kar bade itmiinaan se baiThane jaa rahi thiiN aur piichhe-piichhe Tahira kaala burkaa odh kar aisii gumsum chalii ja rahi thii jaise sudh-budh kho baiThii ho. Aisii hi ek saanjh ko vah bhii dulhan ban kar issi shahar aaii thii, bus meiN simTii-simTaaii laal chunar se Dhakii. Aaj tha syaah burka, jisne uska chehraa hii nahiN, puurii pichhlii zindagii andhere meiN Duba kar rakh dii thii.

“Are kisi ne Vakeel Saahab ke yahaaN bulauaa bheja ya nahiN?” BaDii Ammi boliiN aur Tahira ke dil par nashtar phira.
“De diya Ammi.” Mamujaan bole, “Unkii tabiyat Theek nahin hai, issi se nahiN aaye.”
“Bade nek aadmii haiN.” BaDii Ammi ne Dibiyaa khol kar paan muNh mein bhara, phir chhaalii kii chuTkii nikaalii aur boliiN, “Shahar ke sabse naamii Vakeel ke beTe haiN par aas na aulaad. Suna ek biiwii dange meiN mar gayii to phir ghar hii nahiN basaaya.”

BaDii dhoom-dhaam se byaah hua, chaand sii dulhan aayii. Shaam ko picture ka program bana. Naya joDaa, baDii Ammi, laDkiyaaN, yahaaN tak ki ghar kii naukaraaniyaaN bhii ban-Than kar taiyyaar ho gayiiN. Par Tahira nahiN gayii. Uska sir dukh raha tha. Be-sir-pair ke muhabbat ke gaane sun’ne kii taaqat usmeiN nahiiN thii. Akele kamre meiN wah chup-chaap paDii rahna chaahtii thii – Hindustan, pyaare Hindustan kii aakhirii saanjh.

Jab sab chale gaye to tez batti jala kar vah aadam.qad aaiine ke saamne khaDii ho gayii. Samay aur bhaagya ka atyaachaar bhii uska a.lau.kik saundarya nahiN loot saka. Vah baDii-baDii aankheiN, gora rang aur sangamarmar-sii safed deh – Kaun kahega vah ek jawaan beTii ki Maa hai? KahiiN par bhii uske pushT yauvan ne samay se muNh kii nahiiN khaaii thii. Kal vah subah chaar baje chalii jaayegii. Jis devtaa ne uske liye sarvasva tyaag kar vairaagii ka vesh dhar liya hai, kya ek baar bhii uske darshan nahiiN milenge? Kisii shaitaan-naTkhaT baalak kii bhaanti uskii aankheiN chamakne lagiiN.

JhaTpaT burkaa oDh, vah baahar nikal aayii, pairoN meiN bijlii kii gati aa gayii, par havelii ke paas aa kar vah pasiinaa-pasiinaa ho gayii. PichhwaaDe kii seeDhiyaaN usse yaad thiiN jo Theek unke kamre kii chhoTii khiDkii ke paas aa kar hii ruktii thiiN. Ek-ek pair dus mann ka ho gaya, kaleja phaT-phaT kar muNh ko aa gayaa, par ab vah Tahira nahiN thii, vah solah varsh poorva kii chanchal baalika nav-vadhu Sudha thii jo Saas kii nazar bachaa kar pati ke gaaloN par abiir malne ja rahii thii. 
Milan ke unn amuulya kshanoN meiN Sayyed vansh ke Rahman Ali ka astitva miT gaya tha. Aakhirii siiDhii aaii, saaNs rok kar, aaNkheiN muuNd vah manaane lagii, “Hey Bilweshwar Mahadev, tumhaare charano.N meiN Hiire kii anguuThii chaDhaauuNgii, ek baar unheiN dikha do par ve mujhe naa dekheiN.”

Bahut din baad bhakt bhagwaan ka smaraN kiya tha, kaise na sunte? AaNsuoN se andhii ne devtaa ko dekh liya. Vahii gambhiir mudra, Vahii laTThe ka ikbarra paajaama aur malmal ka kurtaa. Mez par abhaagin Sudha kii tasviir thii jo Gaune par baDe bhaiyya ne khiiNchii thii.

“Jii bhar kar dekh paglii aur bhaag jaa, bhaag Tahira, bhaag!” Uske kaanoN meiN jaise swayam Bholenath garje.
Sudha phir doob gayii, Tahira jagii. 

Sab Cinema se lauTane ko honge. Antim baar aaNkhoN hi aaNkhoN meiN devtaa kii charaN-dhooli le kar vah lauTii aur Bilweshwar Mahadev ke nirjan devaalay kii ore bhaagii. Na jaane kitnii manautiyaaN maaNgii thiiN, issi dehrii par. Sir paTak kar vah lauT gayii, aanchal pasaar kar usne aakhirii manautii maaNgii, “Hey Bholenath, unheiN sukhii rakhna. Unke pairoN meiN kaaNTaa bhii na gaDe.” Hiire kii anguuThii utaar kar chaDhaa dii aur bhaagtii-haaNftii ghar pahuNchii.

Rahman Ali ne aate hii uska piilaa chehra dekha to nabz pakaD lii, “DekhuuN, bukhaar to nahiiN hai. Are anguuThii kahaaN gayii?”

Vah anguuThii Rahman ne issi saal shaadi ke din yaadgaar meiN pahnaaii thii.

“Na jaane kahaaN gir gayi.” Thake swar meiN Tahira ne kaha.

“Koi baat nahiiN” Rahman ne jhuuk kar ThanDii barf-sii lambii anguliyoN ko chuum kar kaha, “Ye anguliyaaN aabaad raheiN. InshaAllah ab ke Tehran se chaukor Hiiraa maNgwaa leNge.”

Tahira kii khoyii drishTii khiDkii se baahar andhere meiN Doobtii Laal Havelii par thii, jiske tiisre kamre kii roshnii dap-se bujh gayii. Tahira ne ek sard saaNs khiiNch kar khiDkii band kar dii. 

Laal Havelii andhere meiN gale tak Doob chukii thii.

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