Monday 15 August 2016

होली - सुभद्रा कुमारी चौहान



 
 सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म नागपंचमी के दिन हुआ था, तारीख़ थी 16 अगस्त। अंग्रेज़ी कैलेंडर से देखें तो सिंह राशि की कहलायेंगी, यानी की "Leo" वाली शेरनी।  और इसी शेरनी की लेखनी से निकली "झाँसी की रानी" कविता, वीर रस से ऐसे ओत-प्रोत थी की निरीह से निरीह पाठक भी इस कविता को पढ़ते समय अपने आप को "वीर बहादुर हिम्मत सिंह" से कम नहीं समझता। जिसने भी कभी औपचारिक रूप से हिंदी पढ़ी है उसने झांसी की रानी के कुछ अंश ज़रूर पढ़े होंगे, ये मेरा ओपन चैलेंज है। अगर आपका जवाब "नहीं" है तो दो ही बात हो सकती है, या तो आपका पढ़ने-लिखने में ज़्यादा ध्यान था नहीं सो आपने ढंग से सिलेबस पर फ़ोकस नहीं किया, या फिर आप हर हफ़्ते अपने काले बाल सफ़ेद करने में इतने व्यस्त हैं की याददाश्त धोखा देने लगी है।

ख़ैर काले बालों वाले किताबी कीड़ों को भी शायद ही पता होगा की सुभद्रा कुमारी चौहान सिर्फ़ कविताएं ही नहीं कहानियाँ भी अच्छी लिख लेती थीं।  अच्छी यानी बहुत ही अच्छी।  वो भी एकदम बोलचाल की भाषा में। अरे अब उनकी बोलचाल की भाषा हमारे आपसे कहीं अच्छी थी भई, इसलिये थोड़ी सादगी होने पर भी शालीन तो लगती हैं। उनका पहला कहानी संग्रह था "बिखरे मोती " और उसी में एक कहानी थी "होली।" 
होली सुनते ही हुल्लड़बाज़ी का जो चित्र आपके मन में आया उससे बिलकुल अलग - मार्मिक और संवेदनशील। मैं पूछना चाहती थी की आप में से किसी ने स्कूल में पढ़ी थी क्या ये कहानी लेकिन जिसे खूब लड़ने वाली मर्दानी ही नहीं याद हो उसने कदम्ब के पेड़ के नीचे बैठ कर सपना ही देखा होगा, बस!

चलिये भूल सुधारने की न ही कोई उम्र तय  है और ना ही समय।  अभी से पढ़ लीजिये, और पाप का पश्चाताप कर लीजिये।

©Fursatnama

होली - सुभद्रा कुमारी चौहान





"कल होली है।"
"होगी।"
"क्या तुम न मनाओगी?"
"नहीं।"
''नहीं?''
''न ।''
'''क्यों? ''
''क्या बताऊं क्यों?''
''आखिर कुछ सुनूं भी तो ।''
''सुनकर क्या करोगे? ''
''जो करते बनेगा ।''
''तुमसे कुछ भी न बनेगा ।''
''तो भी ।''
''तो भी क्या कहूँ?
"क्या तुम नहीं जानते होली या कोई भी त्योहार वही मनाता है जो सुखी है । जिसके जीवन में किसी प्रकार का सुख ही नहीं, वह त्योहार भला किस बिरते पर मनावे? ''
''तो क्या तुमसे होली खेलने न आऊं? ''
''क्या करोगे आकर?''
सकरुण दृष्टि से करुणा की ओर देखते हुए नरेश साइकिल उठाकर घर चल
दिया । करुणा अपने घर के काम-काज में लग गई ।

(2)
नरेश के जाने के आध घंटे बाद ही करुणा के पति जगत प्रसाद ने घर में प्रवेश किया । उनकी आँखें लाल थीं । मुंह से तेज शराब की बू आ रही थी । जलती हुई सिगरेट को एक ओर फेंकते हुए वे कुरसी खींच कर बैठ गये ।  भयभीत हिरनी की तरह पति की ओर देखते हुए करुणा ने पूछा- ''दो दिन तक घर नहीं आए, क्या कुछ तबीयत खराब थी? यदि न आया करो तो खबर तो भिजवा दिया करो । मैं प्रतीक्षा में ही बैठी रहती हूं।''

उन्होंने करुणा की बातों पर कुछ भी ध्यान न दिया । जेब से रुपये निकाल कर मेज़ पर ढेर लगाते हुए बोले- ''पंडितानी जी की तरह रोज़ ही सीख दिया करती हो कि जुआ न खेलो, शराब न पीयो, यह न करो, वह न करो । यदि मैं, जुआ न खेलता तो आज मुझे इतने रुपये इकट्ठे कहाँ से मिल जाते? देखो पूरे पन्द्रह सौ है । लो, इन्हें उठाकर रखो, पर मुझ से बिना पूछे इसमें से एक पाई भी न खर्च करना समझीं?
करुणा जुए में जीते हुए रुपयों को मिट्टी समझती थी । गरीबी से दिन काटना उसे स्वीकार था । परन्तु चरित्र को भ्रष्ट करके धनवान बनना उसे प्रिय न था । वह जगत प्रसाद से बहुत डरती थी इसलिए अपने स्वतंत्र विचार वह कभी भी प्रकट न कर सकती थी । उसे इसका अनुभव कई बार हो चुका था। अपने स्वतंत्र विचार प्रकट करने के लिए उसे कितना अपमान, कितनी लांछना और कितना तिरस्कार सहना पड़ा था। यही कारण था कि आज भी वह अपने विचारों को अन्दर ही अन्दर दबा कर दबी हुई ज़बान से बोली- ''रुपया उठाकर तुम्हीं न रख दो? मेरे हाथ तो आटे में भिड़े है।'' करुणा की इस इनकारी  से जगत प्रसाद क्रोध से तिलमिला उठे और कड़ी आवाज से पूछा-- क्या कहा?''
करुणा कुछ न बोली नीची नजर किए हुए आटा सानती रही । इस चुप्पी से जगत प्रसाद का पारा एक सौ दस डिग्री पर पहुंच गया । क्रोध के आवेश में रुपये उठा कर उन्होंने फिर जेब में रख लिये- ''यह तो मैं जानता ही था कि तुम यही करोगी। मैं तो समझा था इन दो-तीन दिनों में तुम्हारा दिमाग़ ठिकाने आ गया होगा। ऊट-पटांग बातें भूल गई होगी और कुछ अकल आ गई होगी। परन्तु सोचना व्यर्थ था। तुम्हें अपनी विद्वत्ता का घमंड है तो मुझे भी कुछ है । लो! जाता हूँ अब रहना सुख से '' कहते-कहते जगत प्रसाद कमरे से बाहर निकलने लगे।
पीछे से दौड़कर करुणा ने उनके कोट का सिरा पकड़ लिया और विनीत स्वर में बोली- ''रोटी तो खा लो मैं रुपये रखे लेती हूँ। क्यों नाराज होते हो?'' एक जोर के झटके के साथ कोट को छुड़ाकर जगत प्रसाद चल दिये । झटका लगने से करुणा पत्थर पर गिर पड़ी और सिर फट गया । खून की धारा बह चली, और सारी जाकेट लाल हो गई ।

( 3 )
संध्या का समय था । पास ही बाबू भगवती प्रसाद जी के सामने बाली चौक से सुरीली आवाज आ रही थी।

''होली कैसे मनाऊं? ''
''सैया बिदेस, मैं द्वारे ठाढ़ी, कर मल मल पछताऊं ।''
होली के दीवाने भंग के नशे में चूर थे। गाने वाली नर्तकी पर रुपयों की बौछार हो रही थी । जगत प्रसाद को अपनी दुखिया पत्नी का खयाल भी न था। रुपया बरसाने वालों में उन्हीं का सब से पहिला नम्बर था। इधर करुणा भूखी-प्यासी छटपटाती हुई चारपाई पर करवटें बदल रही थी।

''भाभी, दरवाजा खोलो'' किसी ने बाहर से आवाज दी। करुणा ने कष्ट के साथ उठकर दरवाजा खोल दिया। देखा तो सामने रंग की पिचकारी लिए हुए नरेश खड़ा था। हाथ से पिचकारी छूट कर गिर पड़ी। उसने साश्चर्य पूछा--
''भाभी यह क्या? ''
करुणा की आँखें छल छला आई, उसने रूंधे हुए कंठ से कहा--
''यही तो मेरी होली है, भैय्या।''





{कथा भारत दर्शन से साभार}

Saturday 6 August 2016

मन्टो की कड़वाहट


प्रसिद्ध कहानीकार मार्क ट्वेन का कथन है कि शब्द के सही प्रयोग (करेक्ट यूसेज) और लगभग सही प्रयोग(आलमोस्ट करेक्ट यूसेज) के बीच उतना ही बड़ा अंतर है जितना आसमान में कड़कने वाली बिजली और जुगनू में। शब्दों के इसी "करेक्ट यूसेज" और "ऑल्मोस्ट करेक्ट यूसेज" के कारण हमेशा विवादों में घिरी रहीं सआदत हसन मंटो की कहानियाँ। जो मंटो के उद्देश्य को नहीं पकड़ पाते, उन्हें उनकी कहानियाँ अश्लील लगती है। जो शब्दों के बीच लिपटे हुए मर्म को पहचान जाते हैं, मंटो द्वारा उठाये जा रहे संवेदनशील मुद्दों को भाँप लेते हैं, वह घटनाक्रम की विभत्सता से काँप जाते हैं। मन एक अजीब सी कड़वाहट से भर जाता है।  और ये स्थिति परिवर्तन की ओर शायद पहला क़दम होता है। स्वयं मंटो के शब्दों में, " नीम के पत्ते कड़वे सही, मगर ख़ून जरूर साफ करते हैं।"

कहानी में अश्लीलता के आरोप की वजह से मंटो को छह बार अदालत जाना पड़ा था लेकिन एक भी बार मामला साबित नहीं हो पाया। इस सन्दर्भ में मंटो का कथन, नलिन रंजन सिंह की पुस्तक "गुनाहगार मंटो" में देखने को मिलता है : "मुश्किलें इतनी पड़ीं मुझ पर कि आसां हो गईं

अपने अफसानों के सिलसिले में मुझ पर चार मुकद्दमें चल चुके हैं। पांचवां अब चला है जिसकी रूदाद (वृत्तांत) मैं बयान करना चाहता हूं।

पहले चार अफसाने, जिन पर मुकद्दमा चला, उनके नाम हस्बे जैल हैं:

एक: काली शलवारदो: धुआंतीन: बूचार: ठंडा गोश्त औरपांचवां: ऊपर, नीचे और दरम्यान

पहले तीन अफसानों में तो मेरी खलासी हो गई; ‘काली शलवारके सिलसिले में मुझे दिल्ली से दो-तीन बार लाहौर आना पड़ा।

धुआंऔर बूने मुझे बहुत तंग किया, इसलिए कि मुझे बंबई से लाहौर आना पड़ता था

लेकिन ठंडा गोश्तका मुकद्दमा सबसे बाजी ले गया। इसने मेरा भुरकस निकाल दिया।

यह मुकद्दमा गो यहां पाकिस्तान में हुआ, मगर अदालतों के चक्कर कुछ ऐसे थे जो मुझ ऐसा हस्सास (संवेदनशील) आदमी बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि अदालत एक ऐसी जगह है जहां हर तौहीन बर्दाश्त करनी ही पड़ती है।

खुदा करे, किसी को जिसका नाम अदालतहै, उससे वास्ता न पड़े। ऐसी अजीब जगह मैंने कहीं भी नहीं देखी।

पुलिसवालों से मुझे नफरत है। उन लोगों ने मेरे साथ हमेशा ऐसा सुलूक किया है जो घटिया किस्म के अखलाकी मुल्जिमों से किया जाता है।

दरअसल मंटो की खोल दो’, ‘धुआंअथवा काली शलवारजैसी कहानियां मनोरंजन के लिए नहीं लिखी गई हैं। ये कहानियां पढऩे पर ऐसा असर छोड़ती हैं जहां इंसानियत से बढ़कर कुछ नहीं, जहाँ गरीबी हिंसा और अंधविश्वास से बुरा कुछ नहीं।यहाँ आपके साथ मंटो की एक कहानी सांझा कर रही हूँ - "खोल दो"

 खोल दो - सआदत हसन मन्टो 

अमृतसर से स्पेशल ट्रेन दोपहर दो बजे चली और आठ घंटों के बाद मुगलपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। अनेक जख्मी हुए और कुछ इधर-उधर भटक गए।

सुबह दस बजे कैंप की ठंडी जमीन पर जब सिराजुद्दीन ने आंखें खोलीं और अपने चारों तरफ मर्दों, औरतों और बच्चों का एक उमड़ता समुद्र देखा तो उसकी सोचने-समझने की शक्तियां और भी बूढ़ी हो गईं। वह देर तक गंदले आसमान को टकटकी बांधे देखता रहा। यूं ते कैंप में शोर मचा हुआ था, लेकिन बूढ़े सिराजुद्दीन के कान तो जैसे बंद थे। उसे कुछ सुनाई नहीं देता था। कोई उसे देखता तो यह ख्याल करता की वह किसी गहरी नींद में गर्क है, मगर ऐसा नहीं था। उसके होशो-हवास गायब थे। उसका सारा अस्तित्व शून्य में लटका हुआ था।

गंदले आसमान की तरफ बगैर किसी इरादे के देखते-देखते सिराजुद्दीन की निगाहें सूरज से टकराईं। तेज रोशनी उसके अस्तित्व की रग-रग में उतर गई और वह जाग उठा। ऊपर-तले उसके दिमाग में कई तस्वीरें दौड़ गईं-लूट, आग, भागम-भाग, स्टेशन, गोलियां, रात और सकीनासिराजुद्दीन एकदम उठ खड़ा हुआ और पागलों की तरह उसने चारों तरफ फैले हुए इनसानों के समुद्र को खंगालना शुरु कर दिया।

पूरे तीन घंटे बाद वह सकीना-सकीनापुकारता कैंप की खाक छानता रहा, मगर उसे अपनी जवान इकलौती बेटी का कोई पता न मिला। चारों तरफ एक धांधली-सी मची थी। कोई अपना बच्चा ढूंढ रहा था, कोई मां, कोई बीबी और कोई बेटी। सिराजुद्दीन थक-हारकर एक तरफ बैठ गया और मस्तिष्क पर जोर देकर सोचने लगा कि सकीना उससे कब और कहां अलग हुई, लेकिन सोचते-सोचते उसका दिमाग सकीना की मां की लाश पर जम जाता, जिसकी सारी अंतड़ियां बाहर निकली हुईं थीं। उससे आगे वह और कुछ न सोच सका।

सकीना की मां मर चुकी थी। उसने सिराजुद्दीन की आंखों के सामने दम तोड़ा था, लेकिन सकीना कहां थी , जिसके विषय में मां ने मरते हुए कहा था, “मुझे छोड़ दो और सकीना को लेकर जल्दी से यहां से भाग जाओ।

सकीना उसके साथ ही थी। दोनों नंगे पांव भाग रहे थे। सकीना का दुप्पटा गिर पड़ा था। उसे उठाने के लिए उसने रुकना चाहा था। सकीना ने चिल्लाकर कहा था अब्बाजी छोड़िए!लेकिन उसने दुप्पटा उठा लिया था।….यह सोचते-सोचते उसने अपने कोट की उभरी हुई जेब का तरफ देखा और उसमें हाथ डालकर एक कपड़ा निकाला, सकीना का वही दुप्पटा था, लेकिन सकीना कहां थी?

सिराजुद्दीन ने अपने थके हुए दिमाग पर बहुत जोर दिया, मगर वह किसी नतीजे पर न पहुंच सका। क्या वह सकीना को अपने साथ स्टेशन तक ले आया था?- क्या वह उसके साथ ही गाड़ी में सवार थी?- रास्ते में जब गाड़ी रोकी गई थी और बलवाई अंदर घुस आए थे तो क्या वह बेहोश हो गया था, जो वे सकीना को उठा कर ले गए?

सिराजुद्दीन के दिमाग में सवाल ही सवाल थे, जवाब कोई भी नहीं था। उसको हमदर्दी की जरूरत थी, लेकिन चारों तरफ जितने भी इनसान फंसे हुए थे, सबको हमदर्दी की जरूरत थी। सिराजुद्दीन ने रोना चाहा, मगर आंखों ने उसकी मदद न की। आंसू न जाने कहां गायब हो गए थे।

छह रोज बाद जब होश-व-हवास किसी कदर दुरुसत हुए तो सिराजुद्दीन उन लोगों से मिला जो उसकी मदद करने को तैयार थे। आठ नौजवान थे, जिनके पास लाठियां थीं, बंदूकें थीं। सिराजुद्दीन ने उनको लाख-लाख दुआऐं दीं और सकीना का हुलिया बताया, गोरा रंग है और बहुत खूबसूरत हैमुझ पर नहीं अपनी मां पर थीउम्र सत्रह वर्ष के करीब है।आंखें बड़ी-बड़ीबाल स्याह, दाहिने गाल पर मोटा सा तिलमेरी इकलौती लड़की है। ढूंढ लाओ, खुदा तुम्हारा भला करेगा।

रजाकार नौजवानों ने बड़े जज्बे के साथ बूढे¸ सिराजुद्दीन को यकीन दिलाया कि अगर उसकी बेटी जिंदा हुई तो चंद ही दिनों में उसके पास होगी।

आठों नौजवानों ने कोशिश की। जान हथेली पर रखकर वे अमृतसर गए। कई मर्दों और कई बच्चों को निकाल-निकालकर उन्होंने सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया। दस रोज गुजर गए, मगर उन्हें सकीना न मिली।एक रोज इसी सेवा के लिए लारी पर अमृतसर जा रहे थे कि छहररा के पास सड़क पर उन्हें एक लड़की दिखाई दी। लारी की आवाज सुनकर वह बिदकी और भागना शुरू कर दिया। रजाकारों ने मोटर रोकी और सबके-सब उसके पीछे भागे। एक खेत में उन्होंने लड़की को पकड़ लिया। देखा, तो बहुत खूबसूरत थी। दाहिने गाल पर मोटा तिल था। एक लड़के ने उससे कहा, घबराओ नहीं-क्या तुम्हारा नाम सकीना है?

लड़की का रंग और भी जर्द हो गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन जब तमाम लड़कों ने उसे दम-दिलासा दिया तो उसकी दहशत दूर हुई और उसने मान लिया कि वो सराजुद्दीन की बेटी सकीना है।

आठ रजाकार नौजवानों ने हर तरह से सकीना की दिलजोई की। उसे खाना खिलाया, दूध पिलाया और लारी में बैठा दिया। एक ने अपना कोट उतारकर उसे दे दिया, क्योंकि दुपट्टा न होने के कारण वह बहुत उलझन महसूस कर रही थी और बार-बार बांहों से अपने सीने को ढकने की कोशिश में लगी हुई थी।

कई दिन गुजर गए- सिराजुद्दीन को सकीना की कोई खबर न मिली। वह दिन-भर विभिन्न कैंपों और दफ्तरों के चक्कर काटता रहता, लेकिन कहीं भी उसकी बेटी का पता न चला। रात को वह बहुत देर तक उन रजाकार नौजवानों की कामयाबी के लिए दुआएं मांगता रहता, जिन्होंने उसे यकीन दिलाया था कि अगर सकीना जिंदा हुई तो चंद दिनों में ही उसे ढूंढ निकालेंगे।

एक रोज सिराजुद्दीन ने कैंप में उन नौजवान रजाकारों को देखा। लारी में बैठे थे। सिराजुद्दीन भागा-भागा उनके पास गया। लारी चलने ही वाली थी कि उसने पूछा-बेटा, मेरी सकीना का पता चला?

सबने एक जवाब होकर कहा, चल जाएगा, चल जाएगा। और लारी चला दी। सिराजुद्दीन ने एक बार फिर उन नौजवानों की कामयाबी की दुआ मांगी और उसका जी किसी कदर हलका हो गया।

शाम को करीब कैंप में जहां सिराजुद्दीन बैठा था, उसके पास ही कुछ गड़बड़-सी हुई। चार आदमी कुछ उठाकर ला रहे थे। उसने मालूम किया तो पता चला कि एक लड़की रेलवे लाइन के पास बेहोश पड़ी थी। लोग उसे उठाकर लाए हैं। सिराजुद्दीन उनके पीछे हो लिया। लोगों ने लड़की को अस्पताल वालों के सुपुर्द किया और चले गए।

कुछ देर वह ऐसे ही अस्पताल के बाहर गड़े हुए लकड़ी के खंबे के साथ लगकर खड़ा रहा। फिर आहिस्ता-आहिस्ता अंदर चला गया। कमरे में कोई नहीं था। एक स्ट्रेचर था, जिस पर एक लाश पड़ी थी। सिराजुद्दीन छोटे-छोटे कदम उठाता उसकी तरफ बढ़ा। कमरे में अचानक रोशनी हुई। सिराजुद्दीन ने लाश के जर्द चेहरे पर चमकता हुआ तिल देखा और चिल्लाया-सकीना!

डॉक्टर, जिसने कमरे में रोशनी की थी, ने सिराजुद्दीन से पूछा, क्या है?

सिराजुद्दीन के हलक से सिर्फ इस कदर निकल सका, जी मैंजी मैंइसका बाप हूं।

डॉक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी हुई लाश की नब्ज टटोली और सिराजुद्दीन से कहा, खिड़की खोल दो।

सकीना के मुद्रा जिस्म में जुंबिश हुई। बेजान हाथों से उसने इज़ारबंद खोला और सलवार नीचे सरका दी। 

बूढ़ा सिराजुद्दीन खुशी से चिल्लाया, जिंदा है-मेरी बेटी जिंदा है!











Ref: http://www.samayantar.com/book-review-gunahgar-munto/