सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म नागपंचमी के दिन हुआ था, तारीख़ थी 16 अगस्त। अंग्रेज़ी कैलेंडर से देखें तो सिंह राशि की कहलायेंगी, यानी की "Leo" वाली शेरनी। और इसी शेरनी की लेखनी से निकली "झाँसी की रानी" कविता, वीर रस से ऐसे ओत-प्रोत थी की निरीह से निरीह पाठक भी इस कविता को पढ़ते समय अपने आप को "वीर बहादुर हिम्मत सिंह" से कम नहीं समझता। जिसने भी कभी औपचारिक रूप से हिंदी पढ़ी है उसने झांसी की रानी के कुछ अंश ज़रूर पढ़े होंगे, ये मेरा ओपन चैलेंज है। अगर आपका जवाब "नहीं" है तो दो ही बात हो सकती है, या तो आपका पढ़ने-लिखने में ज़्यादा ध्यान था नहीं सो आपने ढंग से सिलेबस पर फ़ोकस नहीं किया, या फिर आप हर हफ़्ते अपने काले बाल सफ़ेद करने में इतने व्यस्त हैं की याददाश्त धोखा देने लगी है।
ख़ैर काले बालों वाले किताबी कीड़ों को भी शायद ही पता होगा की सुभद्रा कुमारी चौहान सिर्फ़ कविताएं ही नहीं कहानियाँ भी अच्छी लिख लेती थीं। अच्छी यानी बहुत ही अच्छी। वो भी एकदम बोलचाल की भाषा में। अरे अब उनकी बोलचाल की भाषा हमारे आपसे कहीं अच्छी थी भई, इसलिये थोड़ी सादगी होने पर भी शालीन तो लगती हैं। उनका पहला कहानी संग्रह था "बिखरे मोती " और उसी में एक कहानी थी "होली।"
होली सुनते ही हुल्लड़बाज़ी का जो चित्र आपके मन में आया उससे बिलकुल अलग - मार्मिक और संवेदनशील। मैं पूछना चाहती थी की आप में से किसी ने स्कूल में पढ़ी थी क्या ये कहानी लेकिन जिसे खूब लड़ने वाली मर्दानी ही नहीं याद हो उसने कदम्ब के पेड़ के नीचे बैठ कर सपना ही देखा होगा, बस!
चलिये भूल सुधारने की न ही कोई उम्र तय है और ना ही समय। अभी से पढ़ लीजिये, और पाप का पश्चाताप कर लीजिये।
©Fursatnama
होली - सुभद्रा कुमारी चौहान
"कल होली है।"
"होगी।"
"क्या तुम न मनाओगी?"
"नहीं।"
''नहीं?''
''न ।''
'''क्यों? ''
''क्या बताऊं क्यों?''
''आखिर कुछ सुनूं भी तो ।''
''सुनकर क्या करोगे? ''
''जो करते बनेगा ।''
''तुमसे कुछ भी न बनेगा ।''
''तो भी ।''
''तो भी क्या कहूँ?
"क्या तुम नहीं जानते होली या कोई भी त्योहार वही मनाता है जो सुखी है । जिसके जीवन में किसी प्रकार का सुख ही नहीं, वह त्योहार भला किस बिरते पर मनावे? ''
''तो क्या तुमसे होली खेलने न आऊं? ''
''क्या करोगे आकर?''
सकरुण दृष्टि से करुणा की ओर देखते हुए नरेश साइकिल उठाकर घर चल
दिया । करुणा अपने घर के काम-काज में लग गई ।
(2)
नरेश के जाने के आध घंटे बाद ही करुणा के पति जगत प्रसाद ने घर में प्रवेश किया । उनकी आँखें लाल थीं । मुंह से तेज शराब की बू आ रही थी । जलती हुई सिगरेट को एक ओर फेंकते हुए वे कुरसी खींच कर बैठ गये । भयभीत हिरनी की तरह पति की ओर देखते हुए करुणा ने पूछा- ''दो दिन तक घर नहीं आए, क्या कुछ तबीयत खराब थी? यदि न आया करो तो खबर तो भिजवा दिया करो । मैं प्रतीक्षा में ही बैठी रहती हूं।''
उन्होंने करुणा की बातों पर कुछ भी ध्यान न दिया । जेब से रुपये निकाल कर मेज़ पर ढेर लगाते हुए बोले- ''पंडितानी जी की तरह रोज़ ही सीख दिया करती हो कि जुआ न खेलो, शराब न पीयो, यह न करो, वह न करो । यदि मैं, जुआ न खेलता तो आज मुझे इतने रुपये इकट्ठे कहाँ से मिल जाते? देखो पूरे पन्द्रह सौ है । लो, इन्हें उठाकर रखो, पर मुझ से बिना पूछे इसमें से एक पाई भी न खर्च करना समझीं?
करुणा जुए में जीते हुए रुपयों को मिट्टी समझती थी । गरीबी से दिन काटना उसे स्वीकार था । परन्तु चरित्र को भ्रष्ट करके धनवान बनना उसे प्रिय न था । वह जगत प्रसाद से बहुत डरती थी इसलिए अपने स्वतंत्र विचार वह कभी भी प्रकट न कर सकती थी । उसे इसका अनुभव कई बार हो चुका था। अपने स्वतंत्र विचार प्रकट करने के लिए उसे कितना अपमान, कितनी लांछना और कितना तिरस्कार सहना पड़ा था। यही कारण था कि आज भी वह अपने विचारों को अन्दर ही अन्दर दबा कर दबी हुई ज़बान से बोली- ''रुपया उठाकर तुम्हीं न रख दो? मेरे हाथ तो आटे में भिड़े है।'' करुणा की इस इनकारी से जगत प्रसाद क्रोध से तिलमिला उठे और कड़ी आवाज से पूछा-- क्या कहा?''
करुणा कुछ न बोली नीची नजर किए हुए आटा सानती रही । इस चुप्पी से जगत प्रसाद का पारा एक सौ दस डिग्री पर पहुंच गया । क्रोध के आवेश में रुपये उठा कर उन्होंने फिर जेब में रख लिये- ''यह तो मैं जानता ही था कि तुम यही करोगी। मैं तो समझा था इन दो-तीन दिनों में तुम्हारा दिमाग़ ठिकाने आ गया होगा। ऊट-पटांग बातें भूल गई होगी और कुछ अकल आ गई होगी। परन्तु सोचना व्यर्थ था। तुम्हें अपनी विद्वत्ता का घमंड है तो मुझे भी कुछ है । लो! जाता हूँ अब रहना सुख से '' कहते-कहते जगत प्रसाद कमरे से बाहर निकलने लगे।
पीछे से दौड़कर करुणा ने उनके कोट का सिरा पकड़ लिया और विनीत स्वर में बोली- ''रोटी तो खा लो मैं रुपये रखे लेती हूँ। क्यों नाराज होते हो?'' एक जोर के झटके के साथ कोट को छुड़ाकर जगत प्रसाद चल दिये । झटका लगने से करुणा पत्थर पर गिर पड़ी और सिर फट गया । खून की धारा बह चली, और सारी जाकेट लाल हो गई ।
( 3 )
संध्या का समय था । पास ही बाबू भगवती प्रसाद जी के सामने बाली चौक से सुरीली आवाज आ रही थी।
''होली कैसे मनाऊं? ''
''सैया बिदेस, मैं द्वारे ठाढ़ी, कर मल मल पछताऊं ।''
होली के दीवाने भंग के नशे में चूर थे। गाने वाली नर्तकी पर रुपयों की बौछार हो रही थी । जगत प्रसाद को अपनी दुखिया पत्नी का खयाल भी न था। रुपया बरसाने वालों में उन्हीं का सब से पहिला नम्बर था। इधर करुणा भूखी-प्यासी छटपटाती हुई चारपाई पर करवटें बदल रही थी।
''भाभी, दरवाजा खोलो'' किसी ने बाहर से आवाज दी। करुणा ने कष्ट के साथ उठकर दरवाजा खोल दिया। देखा तो सामने रंग की पिचकारी लिए हुए नरेश खड़ा था। हाथ से पिचकारी छूट कर गिर पड़ी। उसने साश्चर्य पूछा--
''भाभी यह क्या? ''
करुणा की आँखें छल छला आई, उसने रूंधे हुए कंठ से कहा--
''यही तो मेरी होली है, भैय्या।''
{कथा भारत दर्शन से साभार}
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