Wednesday, 15 October 2014

वाद एवं विवाद




कॉलेज की वार्षिक वाद विवाद प्रतियोगिता का विषय था, "क्या आरक्षण न्यायोचित है?" 

आयोजकों ने ड्रॉ निकाल कर यह तय किया कि कौन पक्ष में बोलेगा और कौन विपक्ष में। मुझे पक्ष में बोलने  को कहा गया। प्रवेश परीक्षाओं में इसी आरक्षण व्यवस्था के चलते कुछ अच्छे अवसरों से हाथ धो बैठने के कारण मुझे आरक्षण में  विशेष श्रद्धा तो नहीं थी परन्तु मेरे पास कोई चारा भी नहीं था। 

चूँकि इस प्रतियोगिता का विजेता आगे होने वाली राज्य स्तरीय युवा महोत्सव में कॉलेज का प्रतिनिधित्व करता था, इसका महत्व कुछ ज्यादा ही होता था। मुझे यहाँ आए अभी तीन महीने ही हुए थे इसलिए अभी भी "फ्रेशर" कह कर संबोधित किया जाता था। कॉलेज के वार्षिकोत्सव में सीनिअर्स का काफी रॉब रहता था और फ्रेशर्स को सर झुका कर उनके साथ अदब से पेश आना होता था. रैगिंग समाप्त हुए कुछ ही समय हुआ था और उनका दबदबा अभी भी कायम था। 

एक फ्रेशर का इस प्रतियोगिता का प्रतिभागी होना मात्र ही चर्चा का विषय था। और उस प्रतिभागी का कन्या होना, विशेष चर्चा का विषय बन गया। इसी कौतूहल मिश्रित जोश ने शायद संपूर्ण कॉलेज को ही औडीटोरिअम में ला बिठाया था। प्रेक्षागृह में पाँव रखते ही इसका आभास मुझे हो गया। किसी के लिए भी वातावरण तनिक भयभीत करने वाला ही था। कॉलेज के नामी गिरामी सभी व्यक्ति की वहाँ उपस्थिति को देख कर, प्रतियोगिता की महत्ता का ज्ञान हुआ। थोड़ी ही देर में प्रतियोगिता प्रारम्भ हो गयी। कुछ अनुभवी और वाद विवाद में परिपक्व छात्रों ने आ कर अपने उदगार व्यक्त किये।  मैंने सूची देखी तो पता चला की मेरा मौक़ा सबसे आख़ीर में आएगा।  लेकिन इससे भी अजीब बात जो पता चली वह ये की  प्रतियोगिता में मैं एकमात्र छात्रा थी, शेष सभी छात्र थे - पुरुष प्रधानता यहाँ भी!

मैं ध्यान से विपक्ष के सभी मत सुन रही थी और मन ही मन उन्हें कंठस्थ करने का प्रयास कर रही थी ताकि अपनी बारी आने पर उनके सही उत्तर दे सकूँ।  क़रीब १४ लोगों के बाद मेरे नाम की घोषणा हुई।  मैंने मंच पर पाँव रखा ही था की ऑडिटोरियम में मानो भूचाल आ गया हो।  इतना शोर मैंने मेरे जीवन में पहली बार सुना था। एक फ्रेशर हो कर  उस प्रतियोगिता में हिस्सा लेना, जिसमें सीनियर्स का वर्चस्व स्थापित था, उनकी दृष्टी में बहुत बड़ा जुर्म था।  दंड स्वरुप वहां बैठा हर "सीनियर " अपनी पूर्ण शक्ति से मेरे इस दुस्साहस की भर्त्सना कर रहा था -चीख पुकार कर। 

अजीब बात है लेकिन। मंच पर पहुँच कर, दो हज़ार लोगों से खचा-खच भरे हॉल में, मेरा आत्मविश्वास शिखर पर  था। हमेशा पाश्चात्य सभ्यता से प्रेरित परिधान धारण करती आई थी परन्तु इस मौक़े के लिए ख़ास तौर से एक श्वेत चूड़ीदार- कुर्ता खरीदा था। पूरा प्रयास था की एक "नो नॉनसेंस" छवि प्रस्तुत करते हुए, अत्यंत सादगी के साथ अपने विचारों को व्यक्त कर जाऊँ। 

थोड़ी देर में जी भर कर चीख चिल्ला लेने के बाद जब श्रोतागण अपने फेफड़ों को विश्राम देने की स्थिति में जाते दिखे तो मैंने अपना वक्तव्य प्रारम्भ किया।  मात्र दो तीन वाक्य ही बोले होंगे की हॉल में सुई-पटक-सन्नाटा छा गया। मानो उन्हें साँप सूँघ गया हो। और जल्द ही  उद्दंड सीनियर्स की वह टोली मानो मेरी मुट्ठी में थी। मेरे कहे हर शब्द को बड़े ध्यान से सुना जा रहा था। ऐसा लगता था की अधिकाँश लोग यह भूल गए थे की उनके समक्ष एक फ्रेशर खड़ी थी।  अधिकाँश लोग, किन्तु सभी नहीं। 

इसका आभास मुझे तब हुआ जब मैंने बड़े ही नाटकीय अंदाज़ में कहा, " बैसाखियों के सहारे, किसी अपंग  व्यक्ति को जीवन की आपाधापी में संघर्ष करते हुए देख कर, आपके  ह्रदय में यह  इच्छा  नहीं होती की आप किसी प्रकार उसकी मदद कर सकें...."

सबके चेहरे पर एक द्रवित सा भाव था कि तभी  अचानक, देर से पसरे हुए सन्नाटे को चीरते हुए , पीछे से एक ज़ोर की आवाज़ आई, "नहींहींहींहींहींहींहीं~~ !"

इस एक "नहीं" से मानो सबकी तन्द्रा भंग हो गयी। एक अफ़रा तफ़री सी मच गयी।  फर्स्ट इयर के जो गिने चुने लोग अब तक एक विजयी मुस्कान के साथ बैठे थे वह इस अप्रत्याशित घटनाक्रम से अत्यंत विचलित हो गए।  अगले कुछ सेकण्ड में ही मानो पुनः पासा पलटने लगा हो। "अब क्या होगा" की उत्सुकता में जनता पुनः अशांत और अधीर हो गयी। 


मुझे स्थिति बड़ी हास्यास्पद सी लगी। कुछ भी अटपटा नहीं लगा।  मैंने बड़े ही शांत भाव से उस कोने में  बैठे सीनियर को देखा जिसने "नहीं" कहा था।   क्षोभ और निराशा के सबसे सजीव  भाव स्वयं ही मेरे चेहरे पर आ गए और मेरी स्वाभाविक प्रतिक्रिया के तौर पर मैंने भावुकता से ओतप्रोत आवाज़ में कहा, "यदि नहीं, तो यह निश्चय ही शोक का विषय है!"

किसी को उम्मीद नहीं थी की मैं इस अवांछित विध्न का प्रत्युत्तर प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगी। तालियों की गड़गड़ाहट से ऑडिटोरियम गूँज उठा।  इस छोटे से घटनाक्रम ने मुझे उसी पल "स्टार" बना दिया।  

बताने की आवश्यकता नहीं है की प्रथम पुरस्कार उस शाम "फ्रेशर" को मिल गया। 

किन्तु यह बताना आवश्यक है कि ये अंत नहीं वरन शुरुआत थी, एक सीनियर और एक फ्रेशर के मध्य होने वाले, वाद एवं विवाद की!


                                                                                                                                                   

                                                                                                                                

9 comments:

  1. उत्सुकता बढ़ गयी है। जल्द ही दूसरा भाग प्रस्तुत करिये।

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    1. wo suna hai na....curiosity killed someone! :P

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    2. एक महीने से ऊपर हो गया?? अगला भाग कब?

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  2. :) 'क्रमशः'... का है इंतज़ार !!!

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  3. बहुत खूब लिखा आपने, लेकिन आपने क्या कहा उसका इन्तजार रहेगा

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  4. धन्यवाद! मैंने क्या कहा ये लिखा तो है.
    :)

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  5. हम्म, बढ़िया!
    किन्तु विवरण कुछ एक पक्षीय सा हो गया चारु-चिबुक धारिणी!

    मुझे विश्वास है कि अगले प्रकरण में थोड़ा और न्यायपूर्वक लिखेंगी...

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    1. किसके प्रति अन्याय हो गया मान्यवर ?

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