Somebody should tell us, right at the start of
our lives, that we are dying. Then we might live life to the limit, every
minute of every day. Do it! I say. Whatever you want to do, do it now! There
are only so many tomorrows. ~ Michael Landon Jr.
"काश......!"
यह छोटा सा शब्द जाने कितनी बार सुना है मैंने, दोस्त-मित्र, रिश्तेदार, सगे- सम्बन्धी, माँ-बाप, भाई-बहन, सहकर्मी, आदि-इत्यादि, सभी से। यह शब्द ऊँच-नींच, अमीर-ग़रीब, नर-नारी, जाति, धर्म, के भेद-भाव से अछूता है।
इस "काश" का सीधा-सादा अनुवाद तो "चाह"
अथवा "इच्छा" होता है किन्तु यदि इसके सारगर्भित अर्थ पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होगा की यह उतनी भी सरल अभिव्यक्ति का उदाहरण नहीं है। इसके पीछे एक गूढ़ रहस्यमयी वेदना का अंश है, जो व्यक्ति को रह रह कर कचोटता है। एक टीस सी उभारता है कहीं अंदर। और व्यक्ति मन मसोस कर रह जाता है।
आप सोच रहे होंगे आज किस परिपेक्ष्य में इस सरल
शब्द के गरल तत्व की चर्चा हो रही है। तनिक अविश्वसनीय लगेगा आपको यदि मैं कहूं
कि इस समय "काश"
का उपयोग मैं जीवन की छोटी-बड़ी भौतिक अपेक्षाओं /अभिलाषाओं के सन्दर्भ में नहीं कर रही हूँ वरन जीवन मात्र के लिए ही कर रही हूँ। भौतिकवादी सुखों को संजोने की अंध - दौड़ में हम सदैव कार्यरत रहते हैं, यंत्रवत से। और जीवन की इस आपाधापी में हम में से अधिकाँश लोग जीवन जीना तो जैसे भूल ही जाते हैं। किन्तु अपने अंदर के आदमी को कैसे भूल जाएँ - वह
जो बीच-बीच में सर उठा कर याद दिलाता रहता है की आप को वास्तविक प्रसन्नता किस
कार्य को करने से प्राप्त होगी। आप वो करना चाहते हैं लेकिन ज़िम्मेदारियों का भूत
आपके कंधे पर बेताल बन कर बैठ जाता है और आपके मन मस्तिष्क को अपने अधिकार में कर
लेता है। आप स्वयं को दिलासा देते हैं कि शीघ्र ही आप इन सब मायाजाल से समय निकालेंगे और
वह करेंगे जिससे आपको आतंरिक प्रसन्नता मिलेगी, आपका मन मयूर नृत्य कर उठेगा, या यूं कहें की मोगैम्बो खुश होगा - बहुत खुश!
और तब कहीं अंदर से यह चीत्कार उठती है,
"काश........!"
आज यहाँ दो रचनायें आप के साथ साझा कर रही हूँ। दोनों को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया है उनकी इच्छा शक्ति ने - जिसके
द्वारा इन्होने
अपने इसी जीवन
चक्र में "काश"
का स्थान
खोज लिया है।
पढ़ें और प्रेरित हों, जीवन जीने के लिए!
१. चित्रा देसाई की कविता:
आजकल मैं मन का करती हूँ।
हाथों को गर्म कॉफ़ी से
और रूह को
फ़ैज़ की नज़्मों से सेंकती हूँ।
हर सुबह पेपर में छपी ख़बरों पर,
इत्मीनान से बहस करती हूँ।
सरसों का साग, बथुए की रोटी,
कभी गुड़, कभी हरी मिर्च से कुतरती हूँ।
अपनी खिड़की पर,
गमलों में उगी खेती को,
पानी से सींचती हूँ।
दोपहर को दोस्तों का हाथ पकड़,
गली मोहल्ले की बातों से लिपटती हूँ।
शाम को
-
आवारगी से घूमते हुए,
पेड़ों की कलगी पर,
चिड़ियों का कलरव सुनती हूँ।
बचे - खुचे पेड़ों पर
पंछी नीड़ बना पाएं,
ऎसी कोशिश में शामिल होती हूँ।
सांझ ढले
अपने गाँव की मिटटी को
दूर से ही सहलाती हूँ
मेरे दोस्त कहते हैं
आजकल मैं कुछ नहीं करती
क्योंकि -
आजकल मैं मन का करती हूँ।
२. सुरैया अब्बास की कविता:
फूल चुनना,
बारीशों में भीगना,
अनजान रस्तों, वादियों में घूमना,
दरिया किनारे रेत पर चलना,
हवा के गीत सुनना,
पहली पहली बर्फ़बारी की खुशी में,
बर्फ़ के गोले बनाना।
अच्छा लगता है मुझे हर शाम
टेरेस पर खडे हो कर,
सुनहरी धूप लेना,
ख़्वाब बुनना।
“Don't
fear death, fear the un-lived life” ~ Natalie Babbitt
©Fursatnama
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