Thursday 7 September 2017

ये कौन पत्रकार है ये कौन पत्रकार



ये कौन पत्रकार है ये कौन पत्रकार!

नीले नीले ट्विटर पर पीला पीला ये कथन
के जिसपे मनगढंत कहानियाँ उड़ा रहा ये पवन
ट्रोल्स देखो रंग भरे
ट्रोल्स देखो रंग भरे चमक रहे उमंग भरे।
ये किसके शब्द शब्द पे लिखा प्रतिकार है
ये कौन पत्रकार है ये कौन पत्रकार
द्वेष की इस पत्रकारिता को तुम निहार लो
इनके अवगुणों को अपने मन में तुम उतार लो
फैला दो आज कालिमा
फैला दो आज कालिमा इनके ललाट की
कण कण से झलकती जिनपे छवि सम्राट की।
अपनी तो आँख एक है, इनकी हज़ार है
ये कौन पत्रकार है ये कौन पत्रकार!

तपस्वियों सी हैं अटल अभिलाषाओं की चोटियाँ
ये इनके खेल-खेल की गोल-मोल गोटियाँ 
ध्वजा से ये खड़े हुए
ध्वजा से ये खड़े हुए हैं विद्वान्-जानकार से
रक्षक कभी "जनाब" के भक्षक कभी सरकार के।
ये किन आदर्शों की भर्त्सना किनका तिरस्कार है
ये कौन पत्रकार है ये कौन पत्रकार!

~ फ़ुर्सतनामा 




***एनी रिसेम्ब्लेंस टू भरत व्यास' सॉन्ग फ़्रॉम बूँद जो बन गयी मोती इज़ प्योरली इन्टेंशनल। 

©Fursatnama 


Tuesday 1 August 2017

रिश्ते


सुबह से फ़ोन कॉल्स और इष्ट मित्र, परिचितों की विशेष उपस्थिति से अत्यंत हर्षोल्लास का वातावरण था। शुभकामनाओं और बधाइयों के मध्य, फ़ोन पर आये सन्देश पढ़ने तक का अवकाश न था। कुछ मित्रों ने मेरे लिए एक छोटा सा आयोजन कर रखा था और वहाँ मेरी उपस्थिति आवश्यक थी अतः स्वयं को लगभग खींचते हुए ही मैंने वहाँ के लिये प्रस्थान किया। होटेल में प्रवेश करते हुए जाने क्या सूझा की ट्विटर के नोटिफिकेशन पर क्लिक कर दिया। 


 एक संदेश था  -  "एक अनाम ट्विटर हैंडल" नहीं रहे। 

स्तब्ध होना किसे कहते हैं जानते हैं आप। मित्रों ने आते हुए  देख लिया था शायद , घेर कर वहां ले गये जहां जगमगाती रौशनी के बीच एक केक रखा था, मेरी सालगिरह का। उस शोर शराबे के मध्य हाथ में ज़बरदस्ती थमाए गये चाकू को थामे, दोनों आँखों से बहते आँसुओं को थामने की मैंने कोई चेष्टा नहीं की।  
सबने सोचा भावनाओं से अभिभूत हो कर मेरे ख़ुशी के आँसू बह निकले। असमंजस की ऐसी अवस्था! बताये  जाने पर भी उनके लिये, जाने वाला ट्विटर का एक हैंडल मात्र साबित होता।
शायद मेरा ये कहना की "he was like a brother and father rolled into one" उन्हें मेरे दुःख की गहराई का तनिक अहसास कराता, किन्तु क्या ये हमारे मध्य के रिश्ते का यथातथ्य नाम होता?
मैंने तो इस ओर कभी ध्यान भी नहीं दिया। 

हर रिश्ते का कोई नाम नहीं होता और कभी नाम होते हुए भी कोई रिश्ता नहीं होता। 

इन्ही नामी - बेनामी रिश्तों के बीच कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो अपनत्व और घनत्व में तो बड़े होते ही हैं, अपने आप में अत्यंत गरिमामय भी होते हैं। अत्यंत मर्यादित और अपनी सीमा में पूर्ण नियंत्रित होते हुए भी उनमें एक उन्मुक्तता होती है - किसी भी बंधन विशेष से मुक्त होने की। 
आशा - प्रत्याशा के चक्र से परे इन रिश्तों का अस्तित्व ही इनका सौंदर्य होता है। 
कुछ संवाद, संवादहीन होते हैं। ऐसे ही संवादहीन संवादों वाला रिश्ता कायम हो जाता है अक्सर कुछ लोगों से, सोशल मीडिआ पर, जहाँ ट्वीट और रीट्वीट के मध्य एक अदृश्य वार्तालाप स्थापित हो जाता है , परस्पर सम्मान से ओत-प्रोत। 


ख़ैर रिश्तों की इस शल्यक्रिया के अन्तर्द्वन्द के मध्य उस दिन वह केक नहीं कटा। समय के साथ शल्यक्रिया भी शिथिल पड़ती जा रही है। लेकिन गुलज़ार साब के हलके-फुल्के शब्द अपने भारी भरकम अर्थ लिये, कानों में बजते रहते हैं :



रिश्ते बस रिश्ते होते हैं
कुछ इक पल के
कुछ दो पल के

कुछ परों से हल्के होते हैं
बरसों के तले चलते-चलते
भारी-भरकम हो जाते हैं

कुछ भारी-भरकम बर्फ़ के-से
बरसों के तले गलते-गलते
हलके-फुलके हो जाते हैं

नाम होते हैं रिश्तों के
कुछ रिश्ते नाम के होते हैं
रिश्ता वह अगर मर जाये भी
बस नाम से जीना होता है

बस नाम से जीना होता है
रिश्ते बस रिश्ते होते हैं..... !




Monday 14 November 2016

चाँद का झिंगोला - रामधारी सिंह "दिनकर"




ऑडियो यहाँ सुनें  Chaand Ka Jhingola by Ramdhari Singh Dinkar - Audio



हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला,
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन-सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ
ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।

आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का
न हो अगर तो ला दो मुझको कुर्ता ही भाड़े का
बच्चे की सुन बात, कहा माता ने 'अरे सलोने`
कुशल करे भगवान, लगे मत तुझको जादू टोने।

जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।

घटता-बढ़ता रोज, किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है
अब तू ही यह बता, नाप तेरा किस रोज लिवायें
सी दे एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आये!

~ रामधारी सिंह "दिनकर"



Wednesday 9 November 2016

परिचित ~ डा. रामनिवास मानव

यहाँ सुनें ➤ Parichit -Audio version

परिचित


बस में छूट जाने के कारण, पुलिस ने उसका सामान, अपने कब्ज़े में ले लिया था। अब, किसी परिचित आदमी की ज़मानत के बाद ही, वह सामान उसे मिल सकता था।

“मेरी पत्नी सख़्त बीमार है। मेरा जल्दी घर पहुंचना बहुत ज़रूरी है होल्दार सा’ब !” उसने विनती की।

“भई, कह तो दिया, किसी जानकार आदमी को ढूंढकर ले आओ और ले जाओ अपना सामान।”

“मैं तो परदेसी आदमी हूं। सा’ब, दो सौ मील दूर के शहर में कौन मिलेगा मुझे जानने वाला !”

“यह हम नहीं जानते। देखो, यह तो कानूनी ख़ाना-पूर्ति है। बिना ख़ाना-पूर्ति किये हम सामान तुम्हें कैसे दे सकते हैं ?”

वह समझ नहीं पा रहा था कि ख़ाना-पूर्ति कैसे हो ।

कुछ सोचकर, उसने दस रुपये का नोट निकाला और चुपके-से, कॉन्स्टेबुल की ओर बढा दिया। नोट को जेब में खिसकाकर, उसे हल्की-सी डांट पिलाते हुए, कॉन्स्टेबुल ने कहा- “तुम शरीफ़ आदमी दिखते हो, इसलिए सामान ले जाने देता हूं। पर फिर ऐसी ग़लती मत करना, समझे !”
दस के नोट ने, कॉन्स्टेबुल को ही, परिचित बना दिया था।

डा. रामनिवास मानव  




साभार : भारत-दर्शन -ऑनलाइन हिंदी साहित्यिक पत्रिका

बंद दरवाज़ा ~ मुंशी प्रेमचंद

यहां सुनें ➤ Band Darwaza - Audio

बंद दरवाज़ा 

सूरज क्षितिज की गोद से निकला, बच्चा पालने से। वही स्निग्धता, वही लाली, वही खुमार, वही रोशनी।

मैं बरामदे में बैठा था। बच्चे ने दरवाजे से झांका। मैंने मुस्कुराकर पुकारा। वह मेरी गोद में आकर बैठ गया।

उसकी शरारतें शुरू हो गईं। कभी कलम पर हाथ बढ़ाया, कभी कागज पर। मैंने गोद से उतार दिया। वह मेज का पाया पकड़े खड़ा रहा। घर में न गया। दरवाजा खुला हुआ था।

एक चिड़िया फुदकती हुई आई और सामने के सहन में बैठ गई। बच्चे के लिए मनोरंजन का यह नया सामान था। वह उसकी तरफ लपका। चिड़िया जरा भी न डरी। बच्चे ने समझा अब यह परदार खिलौना हाथ आ गया। बैठकर दोनों हाथों से चिड़िया को बुलाने लगा। चिड़िया उड़ गई, निराश बच्चा रोने लगा। मगर अंदर के दरवाजे की तरफ ताका भी नहीं। दरवाजा खुला हुआ था।

गरम हलवे की मीठी पुकार आई। बच्चे का चेहरा चाव से खिल उठा। खोंचेवाला सामने से गुजरा। बच्चे ने मेरी तरफ याचना की आँखों से देखा। ज्यों-ज्यों खोंचेवाला दूर होता गया, याचना की आँखें रोष में परिवर्तित होती गईं। यहाँ तक कि जब मोड़ आ गया और खोंचेवाला आँख से ओझल हो गया तो रोष ने पुरजोर फरियाद की सूरत अख्तियार की। मगर मैं बाजार की चीजें बच्चों को नहीं खाने देता। बच्चे की फरियाद ने मुझ पर कोई असर न किया। मैं आगे की बात सोचकर और भी तन गया। कह नहीं सकता बच्चे ने अपनी माँ की अदालत में अपील करने की जरूरत समझी या नहीं। आमतौर पर बच्चे ऐसे हालातों में माँ से अपील करते हैं। शायद उसने कुछ देर के लिए अपील मुल्तवी कर दी हो। उसने दरवाजे की तरफ रुख न किया। दरवाजा खुला हुआ था।

मैंने आँसू पोंछने के ख्याल से अपना फाउंटेनपेन उसके हाथ में रख दिया। बच्चे को जैसे सारे जमाने की दौलत मिल गई। उसकी सारी इंद्रियाँ इस नई समस्या को हल करने में लग गईं। एकाएक दरवाजा हवा से खुद-ब-खुद बंद हो गया। पट की आवाज बच्चे के कानों में आई। उसने दरवाजे की तरफ देखा। उसकी वह व्यस्तता तत्क्षण लुप्त हो गई। उसने फाउंटेनपेन को फेंक दिया और रोता हुआ दरवाजे की तरफ चला क्योंकि दरवाजा बंद हो गया था। 

~ मुंशी प्रेमचंद 






साभार : भारत-दर्शन -ऑनलाइन हिंदी साहित्यिक पत्रिका

धरती का पहला प्रेमी


यहाँ सुनें ➤  Dharti ka Pahla Premi - Audio


धरती का पहला प्रेमी 


एडिथ सिटवेल ने
सूरज को धरती का

पहला प्रेमी कहा है


धरती को सूरज के बाद

और शायद पहले भी
तमाम चीज़ों ने चाहा



जाने कितनी चीज़ों ने

उसके प्रति अपनी चाहत को
अलग-अलग तरह से निबाहा



कुछ तो उस पर

वातावरण बनकर छा गए
कुछ उसके भीतर समा गए
कुछ आ गए उसके अंक में



मगर एडिथ ने

उनका नाम नहीं लिया
ठीक किया मेरी भी समझ में



प्रेम दिया उसे तमाम चीज़ों ने

मगर प्रेम किया सबसे पहले
उसे सूरज ने



प्रेमी के मन में

प्रेमिका से अलग एक लगन होती है
एक बेचैनी होती है
एक अगन होती है
सूरज जैसी लगन और अगन
धरती के प्रति
और किसी में नहीं है



चाहते हैं सब धरती को

अलग-अलग भाव से
उसकी मर्ज़ी को निबाहते हैं
खासे घने चाव से



मगरप्रेमी में

एक ख़ुदगर्ज़ी भी तो होती है
देखता हूँ वह सूरज में है



रोज़ चला आता है

पहाड़ पार कर के
उसके द्वारे
और रुका रहता है
दस-दस बारह-बारह घंटों



मगर वह लौटा देती है उसे

शाम तक शायद लाज के मारे


और चला जाता है सूरज

चुपचाप
टाँक कर उसकी चूनरी में
अनगिनत तारे
इतनी सारी उपेक्षा के
बावजूद।

~ भवानी प्रसाद मिश्र 


Tuesday 8 November 2016

आख़री हिचकी ~ फ़ुर्सतनामा




सबके नोटों को भजाना चाहते हैं, 
हज़ार-पाँच सौ को हटाना चाहते हैं। 

यूँ अचानक बैन नोटों पर लगाकर,
ब्लैक को वाइट बनाना चाहते हैं।

छा रहा है पूँजीपतियों पर अँधेरा,
कैसे भी, काला धन बचाना चाहते हैं।

आख़री हिचकी जाली नोटों की आयी - 
मौत भी उनकी शायराना चाहते हैं। 


~ फ़ुर्सतनामा 


©Fursatnama 
 
***एनी रिसेम्ब्लेंस टू क़तील शिफ़ाई'स ग़ज़ल इज़ प्योरली इन्टेंशनल।